जाड़े की रात
लघुकथा
जाड़े की रात
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हाँड़ कँपा देने वाली ठंड पड़ रही थी।हम दोनों लोग अभी भोजन कर ही रहे थे कि किसी ने दरवाजे पर दस्तक दी। मेरी श्रीमती जी ने दरवाजा खोला तो एक 11-12 साल का बच्चा फटे कपड़ों में गिरा पड़ा था। श्रीमती जी चीख सी पड़ी, उनकी आवाज सुनकर मैं भी दरवाजे पर पहुंचा तो थोड़ा हैरान तो हुआ।मगर स्थिति का अंदाजा लगाते हुए बिना सोचे विचारे उसे उठाकर अंदर लाकर सोफे पर लिटा दिया और उसके ऊपर कंबल दिया। श्रीमती जी ब्लोअर ले आईं और पानी गर्म करने चली गईं।
ब्लोअर की गर्म हवा से बच्चे की चेतना लौटी। मैंनें बच्चे के सिर पर हाथ फेरा तो वह रो पड़ा, तब तक श्रीमती जी ने बाथरूम में गरम पानी रखते हुए बच्चे को लाने के लिए आवाज दी।
मैं बच्चे को बाथरूम तक ले गया । श्रीमती जी ने खुद उसके हाथ पाँव धुलवाए , उसको अच्छे से साफ किया और तौलिए से ढंग से पोंछा।
मैंने अपने अपने बेटे के गर्म कपड़े लाकर उसे पहनाया। वह काफी डरा सा था। श्रीमती जी ने उसे बिस्तर पर बिठा कर रजाई से अच्छे से लपेटकर हल्दी वाला गर्म दूध लाकर पिलाया।
थोड़ी देर में खाना गर्म करके खिलाया।
खाना खाकर वो अचानक श्रीमती जी से लिपट गया और माँ कहकर रो पड़ा।
श्रीमती जी ने उसे बाँहों में भरकर खूब दुलराया और उसके आँसू पोंछ ढाँढस बंधाते हुए मुझसे बोलीं-सुनिए जी! बच्चा है, डर न जाये इसलिए ये मेरे साथ सोयेगा।
जरूर भाग्यवान! ईश्वर ने शायद इसके रुप में हमें हमारे बेटे को लौटा दिया।
श्रीमती जी कुछ बोल न सकीं और उस बच्चे के सिर पर हाथ फेरती शायद अपने आँसुओं को पीने की कोशिशें करती रहीं। फिर बच्चे के साथ सोने चली गयीं।
मैं भी ईश्वर की लीला समझ नतमस्तक हो गया।
● सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा, उ.प्र.
8115285921
©मौलिक, स्वरचित