जायज़
घटना सन 2006 ई., नई दिल्ली रेलवे स्टेशन की है।
काफ़ी बहस के बाद कूली सौ रूपये में राज़ी हुआ तो मेरे ‘साले’ फौजी सतपाल सिंह के चेहरे पर हर्ष की लहर दौड़ गई। एक छोटी-सी लोहे की ठेला-गाड़ी में कूली ने दो बक्से, चार सूटकेश और बिस्तरबंद बड़ी मुश्किल से व्यवस्थित किया और बताये गए स्थान पर चलने लगा।
फौजी नौकरी में अलग-अलग जगह पोस्टिंग कोई नई बात नहीं है। कभी पंजाब, कभी कश्मीर, कभी मध्य प्रदेश और अब जोधपुर राजस्थान में सतपाल सिंह की पोस्टिंग हुई थी। इस बार नई बात यह थी कि और जगहों पर हमारे साले साहब अकेले ही तैनात रहते थे। इस बार परिवार को भी साथ ले आये। परिवार में पत्नी संगीता देवी और पुत्री सिमरन। अतः बोरिया-बिस्तर पैक करना पड़ा। मैं भी ससुराल गया हुआ था अतः वापसी में दिल्ली तक हम साथ आये। गाँव अदवाडी, हल्दूखाल (पौड़ी गढ़वाल) से हमें कोटद्वार तक उत्तराखण्ड परिवाहन की बस मिल गई और कोटद्वार से आगे का सफ़र भारतीय रेल से तय हुआ। दिल्ली पहुंचकर जोधपुर के लिए अगली ट्रैन पकड़नी थी। हम सुबह ही पहुँच गए थे और ट्रैन शाम की थी। शाम को स्टेशन पहुँचने में काफ़ी देर हो गई थी पर शुक्र है रब का, ट्रैन अभी किसी तकनीकी ख़राबी के कारण स्टेशन पर ही खड़ी थी। हमारी जान में जान आई और फ़ौरन से पेश्तर हम ट्रैन पकड़ लेना चाहते थे। स्टेशन पर छोड़ने के लिए मैं भी साले साहब के परिवार के साथ आया हुआ था। अभी कुछ दूर आगे ही बढे थे कि सामान निरीक्षक ने हमें पकड़ लिया। उसने हाथ के इशारे से हमें रुकने को कहा। जेठ की दम निकाल देने वाली उमस में चलते-चलते हम सब पसीना-पसीना थे, ऊपर से ये आफ़त भी गले पड़ गई।
“इस सामान का वज़न कराया है आपने?” सामने से आते ही निरीक्षक ने मेरे साले की तरफ़ प्रश्न उछाला। हम सबकी बोलती बन्द।
“कहाँ से आ रहे हो?” निरीक्षक ने अपना प्रश्न रूपी दूसरा बम गिराया।
“को….. कोटद्वार से …” बड़ी मुश्किल से सतपाल ने हलक से अपना थूक गटकते हुए कहा।
“कहाँ जाओगे?” तीसरे प्रश्न के रूप में निरीक्षक की बम वर्षा ज़ारी थी। जिससे हम सभी घायल हुए जा रहे थे।
“जोधपुर में मेरी पोस्टिंग हुई है,” कहकर सतपाल ने अपना फौजी पहचान पत्र दिखाया, “सामान सहित बाल-बच्चों को लेकर जा रहा हूँ।” तभी उद्घोषक ने लाउडस्पीकर से जोधपुर जाने वाली ट्रैन के चलने की घोषणा की।
“भाईसाहब! जाने दीजिये, ये लोग पहली बार परिवार सहित जा रहे हैं। अतः इन्हें सामान तुलवाने का पता नहीं था।” मैंने हाथ जोड़कर विनती की, “ट्रैन छूट जाएगी!”
निरीक्षक ने हमारे डरे हुए चेहरों का निरीक्षण किया। एक कुटिल मुस्कान उसके चेहरे पर तैर गई। वो समझ गया लोहा गरम है अतः उसने हथौड़ा मार दिया, “निकालो पाँच सौ रुपये का नोट, वरना अभी सामान ज़ब्त करवाता हूँ।” हथेली पर खुजली करते हुए वह काले कोट वाला व्यक्ति बोला।
“अरे साहब एक सौ रुपये का नोट देकर चलता करो इन्हें …” कूली ने अपना पसीना पोछते हुए बुलन्द आवाज़ में कहा, “ये इन लोगों का रोज़ का नाटक है।”
“नहीं भाई पूरे पाँच सौ रुपये लूँगा।” मजबूरीवश सतपाल ने जेब से पाँच सौ रुपये निकले और इस तरह कानून का भय देखते हुए, उसने पाँच सौ रुपये झाड़ लिए। हरे नोट की हरियाली को अपने हाथों में देखकर, वो कमबख़्त मुस्कुराकर चलता बना।
“साहब सौ रूपये उसके हाथ में रख देते, तो भी वह ख़ुशी-ख़ुशी चला जाता,” कूली ने सतपाल से अत्यधिक निराशाजनक भाव में अफ़्सोस ज़ाहिर करते हुए कहा, “उस हरामी को रेलवे जो सैलरी देती है, पूरी की पूरी बचती है। इनका गुज़ारा तो रोज़ाना भोले-भाले मुसाफ़िरों को ठगकर ऐसे ही चल जाता है।” कहते-कहते तमाम रेलवे सिस्टम के प्रति कूली का हृदय आक्रोश से भर उठा।
“अरे यार, वह कानून का भय देखा रहा था। अड़ते तो ट्रैन छूट जाती।” मैंने कूली को समझते हुए सहज भाव से कहा।
“अजी कानून नाम की कोई चीज़ नहीं है हिन्दुस्तान में,” कूली का आक्रोश ज़ारी था, “बस ग़रीबों को ही हर कोई दबाता है। जिनका पेट भरा है, उन्हें सब सलाम ठोकर पैसा देते हैं!”
कहते हुए कूली ने कंधे पर लटक रहे गमछे से अपने पसीना पोंछा! फिर कूली ने ग़ुस्से में भरकर सतपाल की तरफ़ देखते हुए कहा, “मैंने मेहनत के जायज़ पैसे मांगे थे और आप लोगों ने बहस करके मुझे सौ रूपये में राज़ी कर लिया जबकि उस हरामखोर को आपने खड़े-खड़े पाँच सौ का नोट दे दिया।”
कूली की बात पर हम सब शर्मिन्दा थे क्योंकि उसकी बात जायज़ थी।