जाती जनगणना की हवामिठाई का सच |
आपने कभी न कभी हवामिठाई तो खायी ही होगी कुछ ऐसी ही वोट बैक की राजनीति का सबसे बड़ा और मजबूत आधार रही है जाती जनगणना की हवामिठाई यानी अंग्रेजी में कास्ट आइडैंटिटी और इस पूरे राजनीतिक परिदृश्य को अंग्रेजी में ही आइडैंटिटी पालिटिक्स कहा जाता है जो भारत में कोई नयी बात नहीं है यह भारत की पहली जनगणना से ही अंग्रेजों ने डिवाइड एण्ड रुल की नीति से हम पर थोप दी और जब तक वो भारत छोड़कर नही गए इसे करते रहे हालाकि स्वतंत्रता के बाद जाती जनगणना तो नहीं होती मगर सरकार तो इसका डाटा रखती ही है | मंडल कमीशन की रिपोर्ट के बाद से जाती की राजनीति का असल उदय समझना चाहिए क्योंकि उसी के बाद से स्पष्ट रुप से कुछ जातिगत राजनीति करने वाले दल अस्तित्व में आए कुछ ने स्वयं को समाजवादी कहा तो कुछ ने स्वयं को जनता का दल कहा तो कुछ ने स्वयं को बहुजन समाज से जोड़कर प्रस्तुत किया और यह मिला जुला सिलसिला चलता रहा |
जाती जनगणना करवाने का जो प्रमुख मक़सद है वो ये कि सामाजिक और आर्थिक विकास की दौड़ में पीछे छूट गई जातीयो को देश के साथ विकास में जोड़ना और विकास के अवसर देना और आरक्षण इसी का परिणाम रहा है मगर अब यह अपने मूल अर्थ से पूर्ण रुप से भटक गया है | कारण यह है कि जिन अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ी जातियों को आरक्षण मिला है उसका एक तरफा लाभ अब मात्र उन्हीं जातियों के लोगों को मिल रहा है जिन्हें इसका लाभ लंबे समय से मिलता आ रहा है और बहुत हद तक इन्ही कुछ जातियों ने जिनकी संख्या ज्यादा है उन्होंने ही इस पूरे आरक्षण पर एकाधिकार कर रखा है चाहे इसमें आप अनुसूचित जातियों की बात करें अनुसूचित जनजातियों की बात करें या फिर पिछड़ी जातियों की | हर वर्ग की वही दशा है |
यदि सही अर्थों में आरक्षण को सर्वाधिक उपयोगी बनाना है तो आरक्षण आर्थिक आधार पर होना चाहिए जो अब इकोनामिक बिकर सेक्शन यानी ईडब्लुएस के रुप में सवर्ण वर्ग को मिल रहा है लेकिन यह भी कुछ समय के बाद कुछ ही सवर्ण जातियों तक सीमित रह जाएगा आप देख लीजिए गा , वजह यही है कि एक बार हमारे देश में किसी जाति या वर्ग को आरक्षण देने के बाद फिर उसकी अवस्था तथा आरक्षण से प्राप्त लाभों का कोई मुआयना नही किया जाता और इसका नतिजा यह निकलता है की एक पूरे वर्ग को मिला आरक्षण कुछ मजबूत जातियों तक ही सीमित होकर रह जाता है और वोट बैक खोने का सरकारों और राजनीतिक पार्टियों में ऐसा डर है कि इसका आकलन करना तो छोड़ीए आकलन करने की बात कहने तक की हिम्मत किसी में नही है फिर चाहे वो सत्ताधारी पक्ष हो या विपक्ष |
यदि जातिगत आरक्षण का आकलन किया जाए तो सत्य खुद ब खुद सबके सामने आजाएगा कि जिस आरक्षण को प्राप्त करने के लिए आंदोलन किए जाते हैं जाती को आरक्षण देने की बात करने वाली पार्टी तथा नेताओं को अपना वोट देते हैं वो आरक्षण वास्तव में आपके जीवन पर कोई फर्क डालता भी है कि बस हवामिठाई ही है | अब आने वाले लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर फिर से बिहार सरकार ने जाति जनगणना करवाई है और आरक्षण की तय सीमा को बढ़ाकर 75% कर सकते हैं साथ ही कुछ और भी गैर भाजपा शासित राज्यों ने इसे कराने की बात कही है खासकर जिनमें अभी चुनाव प्रकिया चल रही है मगर चाहे किसी राज्य मे जातिगत जनगणना हो या देश के स्तर पर सवाल अब भी वही है कि इसका लाभ किसे मिले यह कौन सुनिश्चित करेगा और किन जातियों को अब इसकी जरुरत नहीं है यह कौन तय करेगा ? प्रश्न बड़ा है और मैं चाहूंगा की आप स्वयं इसका उत्तर तलाश करें |
अंत में सबसे जरुरी बात यह की अपना वोट बैक साध रहे इन नेताओं को क्या इस बात का अंदाजा भी है कि जाति जनगणना के बाद अगर हर जाती आरक्षण की मांग करने लगे और अपनी मांग को लेकर आंदोलनरत हो जाए तो इससे देश में किस तरह का माहौल निर्मित होगा और फिर ऐसे हालात में क्या देश का भाईचारा सुरक्षित रह पाएगा | असल में मेरे अनुसार जाति जनगणना का दाव विशुद्ध रूप से राज्यों के विधानसभा और लोकसभा चुनाव में वोट बैक को साधने का एक हथकंडा मात्र प्रतीत होता है और कुछ भी नहीं |