जाति
एक दोस्त है मेरा,मुझको मुझ जैसा ही लगता है।
मैं खुद को श्रेष्ठ और वह स्वयं को दलित कहता है ।
मैं उस से गले मिलता हू बड़ी ही तबियत से,
अब यह जमाना कभी उसे
तो कभी मुझे पागल कहता है ।।
खेलते हुए चौट लगी खूँ दोनो का लाल था।
न जाने इस बात से क्यू जमाना हैरान था
अब कोई मुझे पापी और अधर्मी कहता है ।
तो कोई उसे नीच और शापित कहता है ।।
यहाँ हर शक्स के पीछे एक दीवार खडी है
मानवता है गौण और
जातिवाद की खाई बहुत बड़ी है ।।
कोई कहता जय जय हनुमान और कोई जय भीम के नारे लगाता है ।
क्या होगा मेरे दश का यह ख्याल बहुत सताता ह।
विडम्बना है दश को विकास से क्या लेना है,
वोट तो जाति से माँगे जाते हैं
किसी ने नीला चौगा पहन रखा और कोई भगवा पहन के आते है
राजनीति का यह अश्व ढाई कदम चलता है और इस प्रपंच से बेचारा मानव ही मरता है ।।