ज़िक्र
आज फिर सुबह से हिचकियाँ चालू हैं
लगता है तुम्हारी याद में हमारा ज़िक्र आया है ।
रेखाएँ हाथ की अब कुछ और ही कहती हैं
तुम्हारे साथ थे तो, हथेलियाँ मिलाने पर चॉंद बनता था।
तुम्हारी याद ने इतना भिगोया
कि ऑंसू अपना काम भूल गए
तुझमें मिलाया खुद को इतना
कि हम अपना नाम भूल गए ।
पन्ने के बीच रखे फूल में अब भी तुम्हारी खुशबू है
क्या अब भी बालों में गुलाब लगाती हो।
शाम से ही फ़िज़ा में कुछ अलग ही रंगत है
लगता है गली से तुम्हारा गुज़र हुआ है ।