ज़िंदगी कभी बहार तो कभी ख़ार लगती है……परवेज़
ज़िंदगी कभी बहार तो कभी ख़ार लगती है
कभी मेहबूब को तभी दग़ाबाज़ लगती है
पल-पल बदलते रहते हैं रग-व-रूप
कभी दिलकश तो कभी गमख्वार लगती है
कभी गुल तो कभी गुज़जार लगती है
कभी सहरा तो कभी पहाड़ लगती है
कभी दिल तो कभी प्यार लगती है
कभी उलफ़त तो कभी तक़रार लगती है
कभी दोस्त तो कभी अगियार लगती है
कभी साहिल को कभी मजधार लगती है
हर बार नये रूप में नज़र आती है ज़िंदगी
कभी मंज़िल तो कभी इंतज़ार लगती है
मुश्किल है समझना ज़िंदगी के राज़ को
कभी हक़ीकत तो कभी ख़्याल लगती है……परवेज़