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24 Nov 2024 · 1 min read

ज़माना

ज़माना
नई बात कहकर पुराने ज़ख्म भुला दूंगा,
बात कोई बीती फिर नहीं छेड़ूंगा,
किसी चौखट पर ना जाऊंगा,
किसी आहट पर ना ठहरूंगा,
कोई घर नहीं बनाऊंगा।
बचपन की आवारा गलियों के उस बूढ़े बरगद को,
गांव से फिर ना लाऊंगा,
टूटी उस दीवार के बिखरे पड़े ईंटों को,
जिनपर बैठा करते थे दोनों नदी किनारे शाम को,
उस मुरझाए फूल को भी ना उठाऊंगा।
टीले पर जो मंदिर है उसमें बंधे घंटे को,
घर में मेरे जो झूला है जिसपर मां और हंसते दोपहर में बातों के गुच्छे होते थे,
बाबा की ऐनक और छड़ी मेज पर जो रखी होती थी,
और आंगन में हमउम्रों संग बीती सारी जो यादें हैं,
बस उनको सहेजने गठरी में मन को लिए मैं आऊंगा,
ज़माना भी यही कह रहा कब से।।

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