ज़ख्म फूलों से खा के बैठे हैं..!
ज़ख्म फूलों से खा के बैठे हैं,
इश्क़ में सब लुटा के बैठे हैं।
बैर इन आँधियों से क्यूं आख़िर,
आशियां खुद जला के बैठे हैं।
अब न हों हादसे नये कोई,
हम ये आँखें झुका के बैठे हैं।
खैरख्वाहों में तो रहें शामिल,
वर्ना सब कुछ गंवा के बैठे हैं।
क्या बतायें सबब तजुर्बों का,
अपनी हस्ती मिटा के बैठे हैं।
आख़िरी चाल बस है बाक़ी अब,
दाव पर जाँ लगा के बैठे हैं।
थी मुहब्बत कभी चरागों से,
आज उनको बुझा के बैठे हैं।
तुहमतें उनकी हैं हज़ारों अब,
जो कि अहसां भुला के बैठे हैं।
और कितने हैं इम्तिहां बाकी,
हम तो कश्ती डुबा के बैठे हैं।
पंकज शर्मा “परिंदा” “