“जहाँ पहुँच नहीं सकते
अनदेखे जहान में
सपनों को समेटते समेटते
अबूझ हो जाती है
सुबह की कविता
ठीक कोई परित्यक्त
बासी खबर जैसी,
मेरे मन में भी जगह नहीं
होती है उसके लिए ।
पत्थर की ओट में
अकेली एक नदी , चुपचाप
बहने लगी
उसकी आँखों में अनदेखा
समय का मोह
भागते हुए पदचिन्ह में
विस्तारित नीरवता को लेकर
अतीत के किसी एक कोने से
सुनाई दे रहा है तुम्हारा स्वर
किसे रखूँ या किसे छोड़ूँ
जब सारे दरवाजे बंद हों
जिंदा रहने का बीज,
ठीक वैसा ही है
जैसे आकाश में मेघ का
हाथी, घोड़ा और माँ का चेहरा
ये जीने का ढंग
कुछ पाने का ढंग
और न खत्म होने वाले प्रश्न
के साथ अँधेरा बढ़ता जा रहा है
जरूरी नहीं कोई मेरे लिए
रख देगा चाँद को यहाँ
देखो तो
कितना चालाक है ये समय
मुझे रोज एक नया सबेरा देकर
मुझसे मेरी उम्र छीनने
लगा है।
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पारमिता षड़ंगी