जल प्रवाह सा बहता जाऊँ।
जीवन के इस कठिन राह पर
सोचा खुद को सरल बनाऊं,
मंद मंद हँस हँस कर मैं अब
जल प्रवाह सा बहता जाऊँ।
चल पड़ा लिए यह पावन सोच
अविरल चलता रहा अभी तक,
खाता बार बार एक ठोकर
अकड़ बना पर अभी तलक।
अपनी जद में रहते हुए
सोचा जिद ना सरल छोडूंगा ,
बाधा कितनी भी राह पड़े
मैं एक एक को देखूँगा।
लम्बा एक समय बीता
थक चला बोधमय ज्ञान मेरा,
कर रहा समर्पण धीरे धीरे
निकला थोथा ज्ञान तेरा।
नाहक तुम कहते ही रहे
परेशान सत्य होता है ,
कितना भी कोई कुछ कर ले
कभी पराजित नहि होता है।
हारा सत्य मेरा अब थक कर
तोड़ रहा नित दम अपना ,
मैं भी बेदम हुआ आज
छोड़ रहा निज सब सपना।
हुई किताबी अब ये बातें
रहा दहाड़ा अब है झूठ ,
आओ मेरे संग चलो सब
करे समय की सीमा कूच।
दहन समय का होगा निर्मेष
ऐसा मुझको लगता है ,
फलक जमीं के मध्य सुनो
मानव मुझ सा पिसता है।
निर्मेष