जरूरत क्या
मुझे अब चाँद तारों गुल बहारों की जरूरत क्या।
तुम्हीं तुम हो निगाहों में नज़ारों की जरूरत क्या?
मेरी आँखें समझती हैं तेरी आँखों की भाषा को।
अधर पर शब्द लिखने या इशारों की जरूरत क्या?
अगर हम चल नहीं सकते कभी पदचिन्ह पर जिनके।
दिखावे के लिए फिर झूठे नारों की जरूरत क्या?
अपाहिज है कोई तन से कोई विकलांग है मन से।
न हो जब हौसला तो फिर सहारों की जरूरत क्या?
बुरी संगत से बहतर है अकेले ही सदा रहना।
न सच्ची राह दिखलाएं वो यारों की जरूरत क्या?
मुनासिब ही नहीं पहचान हो कागज़ के टुकड़ों से।
तो फिर अखबार में इन इश्तिहारों की जरूरत क्या?
मुझे दुल्हन बनाकर ले चलो बाहों के झूले में।
सनम अब ज्योति को डोली कहारों की जरूरत क्या?
✍🏻श्रीमती ज्योति श्रीवास्तव