जयंत (कौआ) के कथा।
जयंत (कौआ)के कथा।
– आचार्य रामानंद मंडल
बाल्मीकि रामायण आ संत तुलसीदास रचित रामचरितमानस मे मतभिन्नता !
बाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड मे अशोक वाटिका स्थित सीता हनुमान जी से कौआ वाला घटना बतैले रहथिन -पहचान स्वरुप जे भगवान राम के विश्वास हो जाय कि हनुमान आ सीता से भेट भेल रहय।
इदं श्रेष्ठमभिज्ञानं ब्रूयआस्त्वं तु मम प्रियं।
शैलस्य चित्रकूटस्य पाले पूर्वोत्तरे पदे ।।१२।।
वानरश्रेष्ठ! तुम मेरे प्रियतम से यह उत्तम पहचान बताना -नाथ! चित्रकूट पर्वत के उत्तर-पूर्व वाले भाग पर,
स तत्र पुनरेवाथ वायस: समुपागमत्।
तत: सुप्तप्रबुद्धां मां रआघवआंगत् समुत्थिताम्
वायस: सहसआगम्य विददार स्तनान्तरे।।२२।।
इसी समय वह कौआ फिर वहां आया। मैं सोकर जगने के बाद श्री रघुनाथ जी की गोद से उठकर बैठी ही थी कि उस कौए ने सहसा झपटकर मेरी छाती में चोंच मार दी।
पुनः पउनरथओत्पयं विददार स मां भृशम्।
तत: समुत्थितो रामो मुक्तै: शोणितबिन्दुभि:।।२३।
उसने बारंबार उड़कर मुझे अत्यंत घायल कर दिया। मेरे शरीर से रक्त की बुंदे झरने लगी, इससे श्री रामचंद्र जी की नींद खुल गई और वे जागकर उठ बैठे।
स मां दृष्टवां महाबाहुर्वितुन्नां स्तशयोस्तदा।
आशीविष इव क्रुद्ध: श्वसन वाक्यमभाषत।।२४।।
मेरी छाती में घाव हुआ देख महाबाहु श्री राम उस समय कुपित हो उठे और फुफकारते हुए विषधर सर्प के समान जोर जोर से सांस लेते हुए बोले -।।२४।।
केन ते नागनासोरु विक्षतं वै स्वानान्तरम्।
क: क्रीड़ति सरोषेण पंचवक्त्रैण भोगिना।।२५।।
हाथी की सूंड़ के समान जांघोंवाली सुंदरी! किसने तुम्हारी छाती को क्षत -विक्षत किया है? कौन रोष से भरे हुए पांच मुखवाले सर्प के साथ खेल रहा है?
वीक्षमाणस्ततस्वं वै वायसं समवैक्षत।
नखै: सरुधिरैस्तीक्ष्णैर्मामेवाभिमुखं स्थितम्।।२६।।
इतना कहकर जब उन्होंने इधर उधर दृष्टि डाली,तब उस कौए को देखा,जो मेरी ओर ही मुंह किये बैठा था। उसके तीखे पंजे खून से रंग गये थे।
रामचरितमानस के अरण्य काण्ड के प्रथम चौपाई में जयंत(कौआ)की कथा हय।
एक बार चुनि कुसुम सुहाए।निज कर भूषण राम बनाए।
सीतहि पहिराए प्रभु सादर। बैठे फटिक सिला पर सुंदर।
एक बार सुंदर फूल चुनकर श्री राम जी ने अपने हाथों से भांति -भांति के गहने बनाये और सुंदर स्फटिक शिला पर बैठे हुए प्रभु ने आदर के साथ वे गहने श्री सीता जी को पहनाए।
सुरपति सुत धरि बायस बेषा।सठ चाहत रघुपति बल देखा।
जिमि पिपीलिका सागर थाहा।महा मंदमति पावन चाहा।
देवराज इन्द्र का मूर्ख पुत्र जयंत कौए का रुप धर कर श्री रघुनाथ जी का बल देखना चाहता है। जैसे महान मंदबुद्धि चींटी समुद्र का थाह पाना चाहती हो।
सीता चरन चोंच हति भागा।मूंढ मंदमति कारन कागा।
चला रुधिर रघुनायक जाना।सींक धनुष सायक संधाना।
वह मूंढ, मंदबुद्धि कारण से ( भगवान के बल की परीक्षा करने के लिए) बना हुआ कौआ सीता जी के चरणों में चोंच मारकर भागा।जब रक्त बह चला,तब श्री रघुनाथ जी ने जाना और धनुष पर सींक (सरकंडे) का बाण संधान किया।
अइ प्रकार बाल्मीकि रामायण आ संत तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस में जयंत (कौआ) के कथा मे मतभिन्नता हय।
-आचार्य रामानंद मंडल सामाजिक चिंतक सह साहित्यकार सीतामढ़ी।