जब से देखा रास्ते बेईमानी से निकलते हैं
बदलते मौसम की तरह हो गया हूँ मैं भी,
सुबह और, शाम कुछ और, हो गया हूँ मैं भी।
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ख़ुद से ख़ुद के दरमियाँ फ़र्क गिनता हूँ,
कि कब से कब, कितना बदल गया हूँ, मैं भी।
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बेहिसाब तल्ख़ झगड़े हैं, मुझ ही से मेरे,
ख़ुद से दूरिया मिटाते रह गया हूँ, मैं भी।
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यों तो सुहानी सुबहें हैं, अनोखी शामें हैं,
जाने क्यों दोपहर से परेशान हो गया हूँ, मैं भी।
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रोज बेइंतहा लोगों से तआरूफ़ होता रहा,
नाउम्मीदी में सभी को भुलाता गया हूँ, मैं भी।
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जब से देखा कि रास्ते बेईमानी से निकलते हैं,
अपने उसूलों के ख़िलाफ़ हो गया हूँ, मैं भी।