जब मेले ने देखा चुड़ियों से मिल “इश्क का रंग”
क्यूँ ले लिया उनका सामान ?
अच्छ एक बात बताओ दीदी !
क्या ?
आपने ऐसा मरद देखा है जो अपनी बीबी को चुड़ियाँ चुराकर दे दे
चुप क्यूँ हो…बोलो न दीदी!
एक पल के लिये सांस लेती मैं पत्थर की हो गई,
शायद…मेरे लिये निःशब्द का मतलब यही रहा है
“ठहर जाना”
कदम चल रहे हों फिर भी अहसास के छुते लम्हों में
बस ठहर जाना,
क्या कहती मैं उससे
इंसान तो छोड़ो उस जमाने की फिल्मों में भी नहीं देखा जब एक रोटी की चोरी पूरी फिल्म की कहानी लिख देती थी।
मीनाबाजार में सजे उस खुबसूरत चुड़ियों की दुकान पर चुड़ियों को देखते-देखते ये क्या आ गया था सामने..?
दुकान की शुरुआत में खड़ा लड़का दौड़कर अंदर की तरफ आता है और चुड़ियों को देख रहे एक आदमी से उसका सामान ले लेता है,
“काफी गुस्से में…..मेरी चुड़ियाँ वापस करो तभी सामान दूँगा”
सामान के नाम पर एक लाल पलास्टिक बैग एक सफेद सर्ट और धोती में 60के आसपास का इंसान
“नहीं हमने नहीं लिया कहता हुआ”
दुकान में चार पाँच लोग सभी 18से 25/26 के बीच के…
जिसने चुड़ी लेते देखा था वो बहुत गुस्से में था,
फिर भी उसे इंसान की उम्र का लेहाज़ था शायद, वो गुस्से में ही लेकिन तमीज़ से चुड़ियाँ वापस करने को कह रहा था…दुकानदार ने वो लाल पलास्टिक बैग वहीं सामने चुड़ियों की सेल्फ के नीचे रख दिया…ताकि सबको दिखता रहे…एक एक कर के सबने पलास्टिक बैग चेक किया हाँ मगर तमीज़ से,
गुस्से में क्या होता है…किसी का भी सामान हो…हम उसे उलट पुलट कर उसका सामान बिखेर देते हैं पर यहाँ भी…क्या कहुँ…शायद संवेदना और जिम्मेदारी के बीच बैलेंस करने की कोशिश कर रहे थे लड़के हाँ लड़के
……….
आपने सच में देखा ?
क्या दीदी आप भी; आपको यकीन नहीं हो रहा, अरे चुड़ियाँ उठाकर उन्होंने अपनी मेहरारू को दे दिया, हम बस उनका चेहरा नहीं देख पाये; अब इतनी भीड़ है; 250सौ की चुड़ियाँ थीं।
………
चुड़ियाँ किसे पसंद नहीं होती…
अतिमध्यमवर्गीय या मध्यमवर्गीय परिवार में आज भी तीज़ त्योहार या खास मौके पर ही 50से ऊपर चुड़ियों का बजट होता है…सच है ये
उस लड़के की बात हमेशा गुंजती है मेरे आसपास,
वो क्या है न जिस क्षण पर ठहर गई वो हमेशा मेरे पास रहती है…..ना वो जाती है….ना मैं उसे जाने देती हुँ।
बात है उन चुड़ियों की
तो उस बड़ी सी दुकान की हजारों चुड़ियों में आखिर क्या किस्मत रही होगी उन चुड़ियाँ की…जिसे अपनी पत्नी के लिये चूराने की हिम्मत कर बैठा कोई…वो भी जिंदगी के उस मोड़ पर…
जाहिर है सिर्फ रिस्ता तो वजह नहीं रहा होगा…यहाँ
इस मेले से इसबार की ईकलौती चीज जो मैंने ऊठाई या खुद ही चलकर आई थी मेरे पास…वो था वो क्षण
जिसमें बहुत कुछ था…बहुत कुछ और सबसे अजुबा,
अजुबा ही कहेंगे
वर्ना कहाँ शामिल होती है आम तो छोड़ो खास जिंदगी में भी… जमीन का सफर तय कर अपने आखिरी सफर में बस आसमान को छुता
ऐसा ईश्क का रंग
~ ©दामिनी ✍️
संस्मरण मेले के संग