जब कभी मैं मकान से निकला
जब कभी मैं मकान से निकला।
चाह में उसकी शान से निकला।
सीने पर लग गया सनम के वो,
तीर कैसा कमान से निकला।
हो गये वो खफा खफा हम से,
लफ्ज़ खट्टा जुबान से निकला।
परवरिश हुई उसकी कीचड़ में,
फूल सुंदर मलान से निकला।
हुस्न बाज़ार में लगी बोली,
ईश्क मेरा दुकान से निकला।
रोए वो फूट फूट कर सच में,
उसके जब मैं जहान से निकला।
हो गया खाक ‘भारती’ सब तो,
शव यारो जब मसान से निकला।
गज़लकार– सुशील भारती, नित्थर, कुल्लू (हि.प्र.)