अप्रैल फूल
अपने बचपन से रू-ब-रू कराने के पहले मैं यहां सबसे पहले मध्य प्रदेश के बैतूल जिले की युवा कवयित्री रेखा कापसे की पंक्तियां उद्धृत करना चाहता हूं-
‘बचपन की गलियों में, सदा मन यूं ही खोया रहता है
सपना जो देखा था कभी, वो मन में संजोये रहता है
गिल्ली-डंडे, छुप्पम-छुपाई, कंचों पर,
वक्त का पहरा सख्त था
वो वक्त भी क्या वक्त था
जहां एक उंगली से कट्टी, दोस्ती दो उंगली पे होती थी
खुल़ी आंखें, लाखों सपने, हर पल, दिन में ही संजोती थी
वहां तो, हर मन परस्त था
वो वक्त भी क्या वक्त था.’’
इन पंक्तियों में सिर्फ मेरा क्या काफी लोगों के बचपन की झांकी नजर आती है. हालांकि देश का बहुत बड़ा बचपन नारकीय दशा में देखा जाता है. खैर मेरे बचपन के दिन तो बहुत ही अच्छे और सुहावने थे. हम पांच भाइयों को सौभाग्य से माता-पिता का भरपूर लाड़-दुलार-प्यार मिला. समय, संरक्षण और संसाधन की हमारे माता-पिता ने कोई कमी नहीं छोड़ी. सौभाग्य से 47 वर्ष की उम्र में भी उनका छत्र हमारे सिर पर है. हां, यह बात जरूर है कि उन्होंने समयानुसार परिवर्तन और नियोजन की ओर ध्यान नहीं दिया. हमारी अलमस्ती और अभिभावकों की छोटी सी कमी से हम अपने समय, संरक्षण और संसाधन का भरपूर दोहन नहीं कर सके जिसका हमारे परिवार के विकास पर खासा असर पड़ा. खैर फिर भी बचपन के वे दिन भुलाए नहीं जा सकते हैं. मेरा बचपन कस्बेनुमा गांव में बीता है-मध्यप्रदेश के मंडला जिला अंतर्गत बम्हनी बंजर नगर पंचायत. हमारे गांव से डेढ़ किलोमीटर की दूरी पर बंजर नदी बहती है. नाम से लगता होगा कि यह नदी उजाड़ और नाले के समान होगी. लेकिन ऐसा नहीं है. यह मध्यप्रदेश की सबसे बड़ी और प्रदेश की जीवनरेखा माने जाने वाली नर्मदा नदी की सहायक नदी है. यह नदी पड़ोसी बालाघाट जिला के टोपला पहाड़ से निकलकर मंडला में नर्मदा नदी में जाकर मिल जाती है. इस नदी का ही कमाल है कि हमारे गांव के आसपास के सैकड़ों गांव इससे पोषण पाते हैं.
खैर मैं अब अपने बचपन पर पुन: आता हूं. आज मुझे बारिश का मौसम भले ही बोर करता है लेकिन बचपन में मुझे बारिश से बहुत लगाव था. मैं इसका इंतजार किया करता था. बारिश की हल्की फुहारों से मौसम का आगाज. धरती की सौंधी-सौंधी महक मेरे शरीर में एक अजीब-सा अहसास भरती थी जिसे मैं शब्दों में बयां नहीं कर सकता. इस बारिश से जुड़ी अनेक बातें मुझे याद हैं. बारिश के इस मौसम में खेतों में मजदूरों के साथ निंदाई कराने, बोनी कराने का परिदृश्य याद करता हूं तो लगता है काश वही समय, वही लोग, वही परिदृश्य फिर मौजूद हो जाएं. एक जुलाई से उस वक्त नए शिक्षा सत्र की शुरुआत होती थी. मैं किताब-कॉपियों और नई यूनिफार्म खरीदने के लिए बेहद रोमांचित हुआ करता था. हालांकि आज की तरह एयर बैग, पानी की बॉटल, लंच बॉक्स की परंपरा उस वक्त नहीं थी. पापाजी भी बड़ी लगन और जतन से किताबों-कॉपियों पर कवर चढ़ाकर नाम लिखी पर्चियां चिपकाया करते थे. उन दिनों दशहरा के समय होनेवाली 24 दिन की छुट्टी, दिसंबर में 7 दिनों का शीत अवकाश फिर दो महीने की गर्मियों की छुट्टियां बड़ी रोमांचित करती थीं. दो महीने के बाद स्कूल के शुरुआती दिनों में नए-पुराने मित्रों से मिलने का रोमांच अपने चरम पर होता था. नया साल, नए विषयों को पढ़ने के लिए मन उत्सुक रहता था. कोरी कापियों को भरने का जो उत्साह मन में हुआ करता था, वह अब देखने को नहीं मिलता. नए बस्ता क्या एक तांत के झोले में किताबें भरकर नई यूनिफार्म में छाता लेकर छोटे भाई राम के साथ स्कूल के लिए निकलते थे तो पलट-पलट कर कुछ चिंतातुर लेकिन मुस्कुराकर विदा करती अम्मा को जब देखते तब हमें अपने आप में किसी राजकुमार होने से कम महसूस नहीं होता था. जब स्कूल से लौटकर हम घर जाते तो लगता था कि कोई जंग जीतकर आए हों. अम्मा भी बड़ी राहत महसूस करती थीं. बारिश का मौसम हो या सर्दी का या फिर गर्मी का आते तो हैं हर साल ही लेकिन ये मौसम उन दिनों की यादों को धुंधला नहीं कर पाए बल्कि वे यादें मिट्टी की सौंधी खुशबू की तरह आज भी हमें लुभाती हैं.
खैर,यह तो ऐसी कुछ अनुभूतियां और वाकया हैं जो संभवत: अन्य लोगों पर भी लागू होती हैं. लेकिन एक ऐसा वाकया और प्रसंग संभवत: आप लोगों के साथ शायद ही घटित हुआ हो. चौथी कक्षा की बात है. मेरे कक्षा शिक्षक अयोध्या प्रसाद जी दुबे थे. पहले पीरियड से लेकर आखिरी पीरियड तक वे ही पढ़ाते थे. लेकिन उनकी पढ़ाने की शैली और व्यवहार ऐसा था कि हम बोर नहीं होते थे. वे मेरे प्रिय शिक्षक थे और मैं उनका प्रिय विद्यार्थी. उसकी वजह यह थी कि मैं पढ़ाई-लिखाई में अव्वल था. वे मुझे बहुत प्यार करते थे. हां तो वह वाकया शुरू करता हूं जो मैं आपसे साझा करना चाहता हूं. अप्रैल का पहला दिन था. दस दिनों बाद ही हमारी परीक्षा शुरू होने वाली थी. परीक्षा का प्रेशर हमारे सर चढ़कर बोल रहा था. उस वक्त ट्यूशन का चलन नहीं था. नियमित क्लास बंद हो गई थीं लेकिन तीन दिनों की एक्सट्रा क्लास के लिए उन्होंने हम सबको सुबह आठ बजे बुलाया था. उन्होंने परीक्षा संबंधी आवश्यक मार्गदर्शन दिया कि परीक्षा के दौरान किस तरह की पढ़ाई करना है. परीक्षा के पहले दिन आधा घंटे पहले पहुंचकर अपना परीक्षा कक्ष और रोल नबर ढूंढना है, किस तरह पहले प्रश्नपत्र को पढ़ना है, समझना है फिर सवाल हल करना है…आदि तमाम अन्य जरूरी बातें बताते हुए उन्हें अचानक क्या सूझी कि उन्होंने हमसे कहा कि पता है तुम्हें, बंजर नदी में बाढ़ आई हुई है? अन्य साथियों के मन में उस वक्त क्या प्रतिक्रिया हुई, मुझे तो पता नहीं पर मुझे लगा कि बारिश तो हुई नहींऔा इस वक्त बाढ़? एक्स्ट्रा क्लास खत्म हुई लेकिन मेरे मन में बंजर नदी का बाढ़ देखने की जिज्ञासा जरूर जाग गई. मैं उस वक्त के अपने सबसे निकटस्थ साथी पवन शर्मा जिसका कुछ ही महीने पूर्व एडमीशन हुआ था, उसके पिता जी डिप्टी रेंजर थे जो स्थानांतरण में आए थे. मेरे कक्षा में सबसे होशियार विद्यार्थी होने के कारण दुबे मास्साब उन्हें मेरे साथ बैठालते थे जिससे उसे पढ़ाई में मदद मिले. तो खैर, एक्स्ट्रा क्लास छूटने के बाद हम दोनों ही बंजर नदी की बाढ़ देखने अकेले ही पैदल डेढ़ किलोमीटर चलकर पहुंचे. वहां पहुंचे तो देखते हैं कि कहां की बाढ़…..बीच नदी में सफेद रेत के बीच कल-कल निनाद करते नदी बह रही थी. रेत के भारी पाट को पार करते हुए हम पानी तक पहुंच गए. पहले तो हमने अपनी प्यास बुझाई. थक तो चुके ही थे. पहले मुलायम-सफेद रेत पर हम लेट गए. लेट क्या गए, नींद ही आ गई. उस वक्त हमारे हाथ में घड़ी तो थी ही नहीं, कितनी देर सोए रहे, पता ही नहीं चला. उठे फिर घर की ओर वापस होने लगे. नदी किनारे झरबेरियों की झाड़ियों से बेर तोड़कर खाने लगे. भूख तो जोरों से लगी थी. जैसे-जैसे बेर खाते, भूख और भी बढ़ती जाती, थकान और भूख के कारण चलना हमारे लिए मुश्किल हो रहा था इसलिए झरबेरी से बेर तोड़कर खाने में हम जुटे रहे. इसमें एक-डेढ़ घंटे गुजर गए होंगे.
दोनों के घर में इस बात का पता नहीं था कि हम किसके साथ कहां चले गए. एक्स्ट्रा क्लास से दस बजे घर पहुंच जाना था लेकिन 2 बजे के बाद भी हम घर नहीं पहुंच सके थे. दोनों ही परिवार चिंतित थे. हमें ढूंढा जा रहा था. आखिर मेरे बड़े भाईसाहब जिन्हें मैं भैया बोलता हूं. पापाजी तो अपनी ड्यूटी में बाजाबोरिया गांव चले गए थे अत: मुझे ढूंढने की जिम्मेदारी बड़े भैया और उनके दोस्तों के सिर पर थी. हम उन्हें करीब दो बजे लस्त-पस्त हालत में हाईस्कूल और पुलिस थाना के पास मिले. जहां से हमारे घर की दूरी करीब एक किलोमीटर है. हम मिले तो उन्हें संतोष मिला और हमें राहत मिली. भैया और उनके दोस्तों की साइकिल में बैठकर घर पहुंचे. अम्मा जो बहुत चिंतित थी, मुझे देखकर खुश हुई और भावुकतावश रो पड़ी. हमने अपने साथ हुआ पूरा वाकया उन्हें सुनाया.
दूसरे दिन फिर एक्स्ट्रा क्लास के लिए पहुंचा. वहां दुबे सर ने सवाल किया कि कल कौन-कौन बाढ़ देखने गया था? हमने बड़े ही आज्ञाकारी शिष्य की तरह इस उम्मीद से कि मास्साब हमारी तारीफ करेंगे, अपना हाथ उठाया और कहा-सर हम गए थे. मैंने पीछे मुड़कर देखा तो हम दोनों के अलावा किसी ने भी हाथ नहीं उठाया थे. मैं थोड़ा विस्मित भाव के साथ गौरव और प्रश्नात्मक भाव से दुबे मास्साब की ओर निहारने लगा कि वे क्या कहते हैं. मास्साब ने जोर देकर कहा- श्याम, तुमसे यह उम्मीद नहीं थी. इतनी गर्मी में क्या कभी बाढ़ आ सकती है. मैंने कहा और तुम चले गए. विवेक भी नहीं लगाया. अरे गधे कल अप्रैल फूल था इसलिए मैंने मजाकवश तुमसे बाढ़ वाली बात की थी, मुझे यह नहीं मालूम था कि तुम देखने ही चले जाओगे. मास्साब की यह बात सुनकर पूरा क्लास अट्ठहास कर उठा और मैं उस अट्ठहास से झेंप सा गया. क्लास में हर बात में अव्वल रहनेवाला मैं उस दिन सबसे फिसड्डी साबित हुआ. उस वक्त मास्साब पर मुझे गुस्सा भी आ रहा था लेकिन बाद में यह भी सोचा कि वास्तव में हर बात पर पहले विचार करना चाहिए, तब उस पर कुछ एक्सन करना चाहिए.