जबसे देखा शहर तुम्हारा, अपना शहर भूल गए
एक रात, इतने क़रीब आ गया महताब मिरे,
दिनों तक हम, राह-ए-रश्क-ए-कम़र भूल गए।
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हम जब भी मिले हैं, महबूब से उनके घर पर,
जाने क्यों वापसी में अपने घर की डगर भूल गए।
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अरसे के बाद मिले तुमसे, कहना बहुत कुछ था,
रूबरू क्या बैठे तुम, कि अपनी ख़बर भूल गए।
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या-ख़ुदा! वो रंगीं शब इतनी जल्दी क्यों ढल गई,
हसीं कुर्बत में, रात तो रात रौशन सहर भूल गए।
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ये कैसा मंज़र है, कैसा असर है तिरी सोहबत का,
जबसे देखा शहर तुम्हारा, अपना शहर भूल गए।