जननी
जननी जहां भी रही वहीं पे लुटाया है प्यार
एहसासों के बरसने का दूजा नाम है प्यार
जननी कभी करती नहीं कभी भेद भाव
जहां भी रही सब पे लुटाती रही बस प्यार
~ सिद्धार्थ
क्या शाख से शिकायत करें कि मुरझा के गिरे जा रहे हैं हम
अपने ही टूट के मुरझाने पे आज कल इतरा रहे हैं हम…
~ सिद्धार्थ