जगमग दीप जलाएंँ
जगमग दीप जलाएंँ
घर आंँगन देहरी द्वार सभी पर दीपक की सत्ता है।
हो अंधकार का नाश, ये संभव दीपक कर सकता है।
लेकर माटी की देह, जो तन पर कष्ट कई सहता है।
जो गुंधे,चाक पर घूम,सेज भट्टी को, जो कहता है।
तपकर हो जाता योग्य, तभी वह अंधकार हर पाता।
जो सहता जनहित कष्ट, वही तो दीपक है कहलाता।
थे राम युगपुरुष , जीवन जिनका तपस्वियों सा बीता।
वन के सारे दुख, हंँसकर सह गईं, राजलक्ष्मी सीता।
गोंडों, भीलों, कोलों, किरात सब को ही गले लगाया।
शबरी माँ के बेरों को जिनने खुश होकर के खाया।
ऋषियों-मुनियों को अभय किया और धर्म-ध्वजा फहराई।
शुभ-संस्कृति परंपराओं की, है अक्षुण्ण ज्योति जलाई।
मद, क्रोध, लोभ, ईर्ष्या, द्वेष,
वासना, कुटिलता, कटुता,
अतिघृणा, स्वार्थ दस दोषों के,
दस सिर था रावन रखता।
उन दसों सिरों को काट, राम ने अंधकार काटा था।
दानवी वृत्ति को मिटा, धरा पर,
नव प्रकाश बांँटा था।
नूतन प्रकाश की अगवानी का, उत्सव पुनः मनाएँ।
हम सब दीपक से बनें, और मिल जगमग दीप जलाएं।
इंदु पाराशर