जगत
पक्षपाती नहीं मैं इस जीवन की
भेदभाव हैं भरा, मानस के घटृ-घटृ में
कौन जानत इस मनचली हवा का रुख
बदलनी हैं इस द्रुत जगत की सोच।
बिनुँ सोच-विचारें करत काज
कछु जानत नहीं आथि॔क विषमता की मार
जैसो काज करत वैसो फल पावत
साँप की दूम में हाथ ढ़ालत हो तो
कत॔व्य-परायण साँपण तो आपणौं कम॔ करत।
ऊँच-नीच का भेदभाव कर
पाप चढ़ाता जाता स्वयं पे
कछु नहीं किया पाप जो पक्ष
लिवत तो आपणौं सर माढ़त।