जख्म से रिसते लहू की धार हैं हम।।
जख्म से रिसते लहू की धार हैं हम।।
सैंकड़ों गम से हुए दो चार हैं हम।।
लहरों के बोझिल थपेड़े मुंह चिढ़ाते,
डूबने को नाव, बिन पतवार हैं हम।
अपने बेगानों की हैं रस्में निभाते,
लग रहा है इस जमीं पर भार हैं हम।।
राम तेरी दुनिया का दस्तूर कैसा,
घर में भी जैसे बिना घरबार हैं हम।।
रेत में बदली नदी सी जिन्दगी है,
अंक में मरुभूमि पाले थार हैं हम।।
जो बिना संवाद के ही चल रही है,
उस कथा के अनकहे से सार हैं हम।।
उनकी दुनियां चांद तक फैली हुई हैं,
और टूटी झोपड़ी के द्वार हैं हम।।
सरोज यादव