छिन्नमस्ता
नारी छिन्नमस्ता है
अपने ही खड़ग से काटती है
अपना शीष
और करती है
अपने ही रुधिर से
अपनी क्षुधा शान्त।
तुम चाहे इसके
जो भी अर्थ निकाल लो
स्वतंत्र हो।
पर मैंने
अपनी दीर्घ जीवन यात्रा में
यही पाया है।
वो! जो जेल के सीखचों से
झांकती है वृद्धा,
जलाकर आई है अपनी ही बहू को।
और वो!
जो अभी अभी उतरी है
लम्बी-सी कार से
कल ही सास को
छोड़कर आई है वृद्धाश्रम में।
उघर देखो,
वो! जो अस्पताल में पड़ी है
बिस्तर पर,
आज ही कराया है उसने गर्भपात
गर्भ में पल रही कन्या भ्रूण का।
हाँ! वह डॉक्टर भी तो
नारी ही है न,
जिसने की है भ्रूणहत्या
कुछ रुपयों के लालच में।
रही होगी कुछ विवशता
इन सब की।
पर तुम्हीं बताओ
मैंने कुछ गलत तो नहीं कहा?
है न नारी छिन्नमस्ता?
सर्वत्र व्याप्त
सर्वत्र उपस्थित।
जेल में भी
जेल के बाहर भी।
गाड़ी में भी
वृद्धाश्रम में भी
अग्नि में भी, गर्भ में भी
गर्भहत्या में भी
पी रही है
अपना ही रक्त
और काट रही है अपना ही मस्तक
अपनी ही खड़ग से।