छप्पय छंद विधान सउदाहरण
छप्पय छंद
कुंडलिया छंद के पहले , छप्पय छंद बहुत प्रचलन में था , इसका विधान भी सरल है | एक रोला छंद + एक उल्लाला छंद =छप्पय छंद |
उल्लाला छंद भी सरल है , उल्लाला के चारों चरण , दोहे के प्रथम चरण ( विषम चरण) जैसे होते है | उल्लाला को तेरह मात्रा की जगह पन्द्रह मात्राओं में भी लिख सकते है , पर तेरह मात्रा का ही सटीक रहता है ,
इस प्राचीन विधा में रोला में कोई – बात/परिस्थिति / समस्या / वर्तमान हालात रखकर या चित्रित करके , उल्लाला छंद से अपना संदेश कथन दिया जाता है जो समाज को छत्रछाया /छप्पय / या छप्पर / छतरी की प्रतिरुपता प्रदान करता है
सादर
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छप्पय_छंद )
(छंदों का भी विचित्र मेल है , एक दोहा +एक रोला =कुंडलिया )
पर एक रोला छंद + एक उल्लाला छंद =छप्पय छंद (6 पंक्तियां )
उदाहरण ::–
कोष्ठक लगा पढ़ने पर 15-13 का उल्लाला हो गया व हटाने पर 13- 13 का उल्लाला ही रहा है (यह प्रयोग अभ्यास छप्पय में काम आएगा
(है )उनसे कैसी मित्रता , कटु विष जिसके पास है |
(पर )जिनको ऐसी निकटता, उनमें तब विष.खास है ||
(हम )गए खोजने यार घर , मक्खी है किस दाल में |
(जब) वापस आकर देखता, घर था मकड़ी जाल में ||
(हम )लोग सयाने हो गए, निज की करें न बात अब. |
(पर)कमी और में खोजना ,लगे रहे दिन- रात सब. ||
(अब )बिन दौड़े अंधा कहे , मेरी जानो जीत है |
(वह) बहरे से भी बोलता , मेरा सुंदर गीत है ||
(जब) नाच. रही थी लोमड़ी , कागा जिसका यार है |
(तब) भौचक हंसा देखता , होना क्या इस बार है ||
यह १५-१३-उल्लाला का अभ्यास था
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कुंडलिया के दोहा में कोई कथ्य जोरदार तरीके से कहकर , उसके रोला में समर्थन या उदाहरण दिए जाते है
पर छप्पय के रोला में बात कहकर ,उल्लाला से जो संकेत किया जाता है उसकी हृदय पर गूँज छपाक से हो जाती है व अमिट छाप
रहती है
आयोजित छंद के लिए ऐसे रोला का अभ्यास करें , कि जिसमें नीचे रोला पर समर्थित एक और दमदार कथ्य का उल्लाला जोड़ा जा सके , जैसे ~
रोला
मौसी उनको मान , निभाता जिनसे नाता |
खुले आम. लूँ नाम , कहें हम विद्या माता ||
कलम हाथ में देख , शारदे देती सविता |
बने लक्ष्मी पुत्र, लिखें पर यारो कविता ||
रोला
जिसको अक्ल अजीर्ण, गान में निज की गाथा |
होता बंटाधार , रगड़ता रहता माथा ||
यह अभिमानी हाल , करे जब ऐसी गलती |
तब माचिस की आग , स्वयं पहले ही जलती ||
रोला
कुछ हैं बड़े महान , हमें हर चौखट दिखते |
करे न कोई काम , वहाँ पर लटके मिलते ||
मुरझाते हैं फूल , देखता रहता माली |
दिखता कदम प्रताप, बगीचा रहता खाली ||
यह रोला का अभ्यास था
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अब रोला में उल्लाला जोड़कर छापदार छपाक से पूरा छप्पय पोस्ट करना है ।
जैसे~मैं कर रहा हूँ
छप्पय~छंद 1
मौसी उनको मान , निभाता जिनसे नाता |
खुले आम. लूँ नाम , कहें हम विद्या माता ||
कलम हाथ में देख , शारदे देती सविता |
बने लक्ष्मी पुत्र, लिखे पर यारो कविता ||
कविता से अंजान हूँ , पर भावो का इत्र है |
मोसी मेरी शारदे , रिश्ता यहाँ पवित्र है ||
हमने यहां 13-13 का उल्लाला लगाया है ,यहां 15- 13का भी लगा सकते हैं, जैसी आपकी लय सुविधा हो ।
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छप्पय छंद 2
जिसको अक्ल अजीर्ण, गान में निज की गाथा |
होता बंटाधार , रगड़ता रहता माथा ||
यह अभिमानी हाल , करे जब ऐसी गलती |
तब. माचिस की आग , स्वयं पहले ही जलती ||
बदनामी के काम तज, चिंतन से लो चेतना |
यश के सोचो कर्म अब, सदा दर्प को फेकना ||
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छप्पय छंद 3
कुछ हैं बड़े महान , हमें हर चौखट दिखते |
करें न कोई काम , वहाँ पर लटके मिलते ||
मुरझाते हैं फूल , देखता रहता माली |
दिखता कदम प्रताप, बगीचा रहता खाली ||
कुछ लोगों के पग दिखें , होते बंटाधार हैं |
कदम रखें जिस भूमि पर , बँटती रहती खार है ||
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यह चमत्कार आप अपनी कुंडलिया में ही करके देखे, , आज
छप्प़य लिखने से कविगण दूर हैं , पर छप्पय नें एक समय मुकाम हासिल किया था ,
आज छंद के लिए , अपनी पुरानी या नई लिखी कुंडलिया लिखकर , उसके दोहा को, नीचे ले
जाकर , सम चरण के चरणांत में दो लघु या एक दीर्घ जोड़ने का अभ्यास करें, जिससे छप्पय बन सकता है
जैसे –
वह कुंडलिया जिससे ऊपर लिखा छप्पय छंद बनाया है
पहले कुंडलिया लिखना है , फिर उसी के नीचे लिखी कुंडलिया से छप्पय बनाकर लिखना है , ़यह छप्प़य लिखने का अभी आसान तरीका है व छप्पय को प्रचलन में लाना उद्देश्य है
वह कुंडलिया जिसको छप्पय में बदल रहे है
कुंडलिया –
बनता खुद ही पारखी ,कहता हम सरदार |
परख न पाता आदमी, ऐसा नर बेकार ||
ऐसा नर बेकार , घड़ी में रंग बदलता |
पर दाई से पेट , नहीं माता का छिपता ||
रखता कच्चे कान ,आंख भी अंधी रखता |
खाता रहता चोट , सदा खुद लल्लू बनता ||
अब इस कुंडलिया का छप्पय छंद बनाया है
👇
ऐसा नर बेकार , घड़ी में रंग बदलता |
पर दाई से पेट , नहीं माता का छिपता ||
रखता कच्चे कान ,आंख भी अंधी रखता |
खाता रहता चोट , सदा खुद लल्लू बनता ||
बनता खुद ही पारखी ,कहता हम हुश्यार हैं |
परख न पाता आदमी, ऐसा नर बेकार हैं ||
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( एक सम्पूर्ण रचना) उदाहरणार्थ छप्पय छंद
पल में लिया उखाड़ , बीज को बोकर सादा |
फल देने हर हाल , अभी पूरा कर वादा ||
कैसा है यह बीज ,नहीं फल इसमें दिखते |
बोते ही फल फूल , उगें हम यही समझते ||
(यह ) कैसे-कैसे स्वाँग है , देखते सभी ठहरकर |
(अब) पल भर में फल है कहाँ, और वह पूरे मन भर ||
( इस छप्पय में समाहित 15-13 उल्लाला की दोनों पंत्तियों में प्रारंभ ११ से है व अंत भी १११ से है)
यह १५+१३ का उल्लाला है = छप्पय छंद बन गया है
पर कोष्ठक में दिए गए ( यह ) अब )हटाने पर 13- 13 का उल्लाला लगा छप्पय बन जाएगा
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सादर
© सुभाष सिंघई
(एम•ए• हिंदी साहित्य , दर्शनशास्त्र)
जतारा (टीकमगढ़) म०प्र०
आलेख- सरल सहज भाव शब्दों से छंद को समझानें का प्रयास किया है , विधान से सृजन , वर्तनी, मात्रा दोष हो तो परिमार्जन करके ग्राह करें
सादर
~~~~~~~~~अब मेरे कुछ छप्पय छंद प्रस्तुत है ~~
छप्पय छंद
मन का निर्मल गान , करे सिर पर सुख छाया |
जहाँ अपेक्षा त्याग , वहाँ हर्षित है काया ||
किसी-किसी को प्रेम , वहाँ होता है दुखदाई |
अपनी लेता मान , किसी की चीज पराई ||
मन अपना निर्मल रखो , नहीं पराई चाह हो |
दूजों का सम्मान हो , बस इतनी परवाह हो ||
देखा कुछ के गेह , बनी है जो कद काठी |
दरवाजे पर दर्प , खड़ा है लेकर लाठी ||
मैं मैं का ले ढोल , बजाकर करते हल्ला |
ज्ञानी उनसे दूर , झाड़ते अपना पल्ला ||
ऐसे जन जब भी मिले , रहना उनसे दूर है |
समझाना बेकार भी, मद जिनमें भरपूर है ||
पढ़कर पन्ने चार , कहें वह पढ़ ली पोथी |
अधकचरा रख ज्ञान ,बात भी करते थोथी ||
रखते मीटर एक , सभी को उससे नापें |
उनको सम्मुख देख, लोग भी थर थर कापें ||
ऐसे ज्ञानी जब मिले , हाथ दूर से जोड़िए |
आ जाए यदि सामने , जगह वहाँ की छोड़िए ||
ज्ञानी करता वार, रार भी जमकर ठाने |
करे सृजन का लोप , घात के बुनता ताने ||
बोल बड़े वाचाल , बात अचरज से लेखी |
गहन निशा से प्रेम, रार उजयाला देखी ||
वर्तमान हालात यह , पर करना कुछ काम है |
जितना भी अब हो सके , करना उजली शाम है ||
सूरदास रसखान , कदा पड़ जाते फंदे |
तब भी कुछ श्रीमान, टोकते सुनिए बंदे ||
मुझसे लीजे ज्ञान, कहाँ फिरते हो मारे |
हम है गुरु उस्ताद , छंद भी आते सारे ||
कहते लोग ‘सुभाष” से, मुझें करो स्वीकार तुम |
मैं हँसकर उनसे कहूँ , लगे सही सरदार तुम ||
मौसी उनको मान , निभाता जिनसे नाता |
आदर से लें नाम , कहें हम विद्या माता ||
कलम हाथ में देख , शारदे देती सविता |
बने लक्ष्मी पुत्र, लिखे पर यारो कविता ||
कविता से अंजान हूँ , पर भावो का इत्र है |
मौसी मेरी शारदे , रिश्ता बड़ा पवित्र है ||
होते जलती आग , चुभाते दिल में भाला |
कर्कष जिसके बोल,उगलते मुख से ज्वाला ||
कह सुभाष नादान वचन में भरी रँगोली |
सुखद मिले परिणाम , बोलकर मीठी बोली ||
देखे जग में कटु वचन , पूरे जलती आग हैं |
मीठी बोली बोलकर, खिलते पुष्प पराग हैं ||
जिनके हो तुम फूल , सदा वह साथ तुम्हारे |
कभी न तुमसे दूर , रहे वह सदा हमारे ||
कह सुभाष कवि जैन,हृदय से करो समर्पण |
कभी न जाना भूल , उन्हें तुम करके तर्पण ||
याद उन्हें करते रहो , पर मत जाओं भूल तुम |
जीवन में वह बृक्ष है, जिनके खिलते फूल हम ||
करते रहते घात , सदा हिंदी को तोड़े |
पकड़ गधे की पूँछ , शेर में जाकर जोडे ||
बनते खुद मठधीश, सड़ी-सी लिखते पर्ची |
कहकर भोड़ाचार्य , लगाता उनको मिर्ची ||
मिर्ची उनको दे रहा , सीधी सच्ची बात है |
जो हिंदी के नाम पर , करते रहते घात है ||
सूर्योदय के पूर्व , दौड़ना तुम कुछ योजन |
रहना सदा निरोग,अधिक मत करना भोजन ||
उम्दा रहे शरीर , हँसी मुख मंडल लाना |
कह सुभाष नादान , उमर सौ की तुम पाना ||
भोजन थोड़ा कम करें , ज्यादा पीना नीर है |
मेहनत करना ठाठ से , उम्दा तभी शरीर है ||
ऐसे है श्रीमान , सूत्र भी याद नहीं है |
फिर भी रहे दहाड़ , गलत को कहें सही है ||
रहता मोन सुभाष , कहें क्या हम बंदो को |
भले मिले उस्ताद , जहाँ पर है छंदो को ||
छंदों को समझा रहे, पटलो पर उस्ताद है |
हिंदी का ठेका लिए , पर करते बर्वाद है ||
सच में दिखे कमाल, फर्क हम देखें इतना |
उससे उतना प्यार,काम है जिससे जितना ||
देख रहा संसार , खून के बंधन सस्ते |
स्वारथ के सब पृष्ठ , खुले है पूरे बस्ते ||
रिश्ते देखे खून के, जिस पर उठें सवाल अब |
अंजानो से प्यार है, सच में दिखें कमाल अब ||
कारण प्रमुख दहेज, भार है बेटी घर में |
पिता लगे लाचार , जुड़ा दहेज है वर में ||
जाता है जिस द्वार , दहेजी उसको मिलते |
लेन देन की बात, तभी शादी को हिलते ||
गर्भपात में बेटियां , हो जाती निस्तेज है |
इसके सौ कारण में ,कारण प्रमुख दहेज है ||
रोगी अक्ल अजीर्ण, गान में निज की गाथा |
होता बंटाधार , ठोकते परिजन माथा ||
अपना गाते गान , दिखे पग उनके लोभी |
काम मदारी छाप , ठोकते दावा जो भी ||
जो भी अभिमानी रहा,छवि करता उत्कीर्ण है |
ऐसे नर को जानिए , रोगी अक्ल अजीर्ण है ||
मिलते हमें हजार , देखते हम पाखंडी |
बगुले बनते हंस , धर्म की लेकर झंडी ||
कह सुभाष नादान , घड़ा फूटेगा भरके |
बचा न कोई यार , एक भी गलती करके ||
करके एक अनीति ही , रावण जग बदनाम है |
करते जो अब रात दिन, उसकी जाने राम है ||
पुल ऊपर जलधार, प्रीति से सजन पुकारे |
गोरी है लाचार , खड़ी वह. बलम निहारे ||
देख रहे सब लोग , सभी को है मनभावन |
साजन -सजनी प्रीति , सुहाना कहते सावन ||
सावन में साजन खड़ा , नदिया के उस पार है |
बैरी बादल हो गए , पुल ऊपर जलधार. है ||
कहीं न होता मर्ज, अकेला ही वह रहता |
जिद्दी रहे स्वभाव , कष्ट भी खुद ही सहता ||
समझाना बेकार , प्रेम का नीर न बहता |
दिल से रहे कठोर ,बात भी बेतुक कहता ||
कहता है जो आदमी , हमें पड़ी क्या गर्ज है |
वह देखा संसार में , कहीं न होता मर्ज. है ||
नेता करे धमाल , नमक व्यानों में घोला |
होती वहाँ दरार , जहाँ पर उसने बोला ||
कह सुभाष कुछ सोच ,सभी रखते यह लेखा |
फट जाता है दूध , जहाँ नेता ने देखा ||
देखा नेता आजकल, रहता कुछ नाराज है |
भाषण की पूँजी लगी, मिले न उसका ब्याज है ||
भारत माँ की शान , हुए थे सभी इकट्ठे |
आजादी की चाह , दाँत गोरो के खट्टे ||
कैसी थी तलवार , सभी ने सुनी कहानी |
लड़ी शौर्य से खूब , यहाँ झांसी की रानी ||
रानी लक्ष्मी का सुनो , पहचानो बलिदान को |
नमन करूँ वीरांगना , भारत माँ की शान को ||
अच्छा रहे शरीर , खुशी मुख मंडल. आती |
लगे काज में चित्त , आभ चेहरे पर छाती ||
सूर्योदय के पूर्व , दौड़ना तुम कुछ योजन |
रहना सदा निरोग,अधिक मत करना भोजन ||
भोजन थोड़ा कम करें , ज्यादा पीते नीर है |
मेहनत करते ठाठ से ,उम्दा दिखे शरीर है ||
बन जाता जब भाव का, दही धवल सुखकार |
कलम मथानी हाथ की , मथकर देती सार ||
मथकर देती सार , चमकते उसके दाने |
चखते उसका स्वाद , परखते जिसे सयाने ||
कह सुभाष नादान , गुणीजन हाथों आता |
पारस जैसा काज , सृजन कंचन बन जाता ||
रुकते घोड़ा पैर , ऊँट भी मारे हाथी |
लगे बजीरा दीन , मरें पैदल – से साथी | |
लगते सब लाचार , जहाँ राजा भी हारे |
हुई चाल में भूल , चले हम बिना विचारे ||
बिना विचारे जब चलें ,यदि शतरंज बिसात पर |
प्रतिद्वन्दी चूके नहीं , लाता हमको मात. पर ||
लगते सब नादान , ज्ञान अब गूगल देते |
कुछ है त्रुटि अपलोड , उसे भी अपना लेते ||
देख रहे हम हाल , तर्क भी गूगल से तल |
कुछ करते है रार, जयति जय-जय हो गूगल ||
गूगल जी अब गुरु हुए , पाते है सम्मान. अब |
ज्ञाता लगते जगत के , बाकी सब नादान अब ||
दुर्जन देता घात , भरोसा कभी न करना |
देना सभी जवाब. नहीं तुम उससे डरना ||
कहता यहाँ सुभाष , मानिए. झूठा सपना |
आए. दुर्जन काम , कभी वह. होवे अपना ||
अपना भी करने लगे, आकर पीछे घात है |
नहीं पाप का काम तब , देना उसको मात है ||
छूटे हाथ लगाम , काम जब बिना विचारे |
रोता सिर को थाम , सभी को वहाँ पुकारे ||
भरा अहम् है भाव , वहाँ पर कौन. टिकेगा |
रहे समय खामोश , नहीं वह वहाँ कहेगा ||
रे मानव तू चेत जा , मान न कर संसार में |
अमृत सा आनंद है , जग के उपजे प्यार में ||
अधरों की मुस्कान , कटीले जिसके नैना |
चेहरे पर मधु भाव , बने हैं उसकी सेना ||
कह सुभाष नादान , महकता पूरा अंचल |
होते लोग निहाल , हृदय भी होता चंचल ||
सभी देखते कामनी , कंचन रूप समान है |
नारी का सुंदर रूप , अधरों की मुस्कान है ||
सुभाष सिंघई
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