चौराहा
चौराहा
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गोल गुलंबर , चारो तरफ जाती राहें
पता नही कितने चौराहे
पूर्व नही पश्चिम नही
उत्तर नही दक्षिण नही
जाना चाहता हू जिस भी दिशा में
विपरीत दिशा मुझे खीच लेती है
हाथ मरोड़कर ,, झंझोड़ झंझोडकर
मशीन में डाले गन्ने की तरह
निचोड़ निचोड़कर
मेरे अंतर्मन का द्वंद जारी है
संघर्ष की सीमा है चरम पर
पता नही कब परिणाम की बारी है,
इस मंथन में मेरा कितना क्षय हो रहा है
इन चारों राहों को नही पता
मुझे खींच खींच कर , ,
तोड़ना चाहता है यह चौराहा
दर्द बहुत है, घबराहट है, टूटन है ,
अचरज इस, खुले चौराहे पर भी
इतनी सारी घुटन है
कभी हिला देती है अंदर तक मुझको
सोचता हु अक्सर कितना
और संघर्ष करू
किस किस से लडू
किस किस से बाहें छुड़ाऊ
किस राह पर किस दिशा में
सफर अपना दर्ज करूं
इन चार राहों का अंत कहा है
मुझे स्वयं नही जानकारी
मैं तो बस अदा कर रहा हु
विधाता प्रदत्त अदाकारी
पता नही सर्वेश्वर क्या करवाना चाहता है
क्या इसी चौराहे पर मुझे गिराकर
तड़पाना चाहता है ?
मेरे दोनो हाथ मरोड़ दिए,
मुझे अपंग बना दिया
इनसे लड़ने का बस
अब एक ही है माध्यम
मेरा यह कवितालय
कवितालय की शक्ति से मैं
एक हाथ तो छुड़ा ही लूंगा
भटकते खयालो से बाहर निकलकर
एक मार्ग अपना लूंगा
मेरी मां सरस्वती मुझे देगी मार्गदर्शन
इस चौराहे से निकलने का संकेत होगा
सत्य साहित्य का ज्ञान दर्शन ।
मेरा काव्य ही मेरी ऊर्जा का श्रोत बनेगा
साहित्य ही मेरा परिचय होगा,
यह् ही मेरा गोत्र चुनेगा
चौराहे का निरर्थक प्रयास
मुझे विचलित नहीं कर पाएगा
जितना हो कुत्सित व्यवहार
मुझे भ्रमित नहीं कर पाएगा ।
मेरा सत्य और अस्तित्व मरने कभी नही दूंगा
मां सरस्वती प्रसन्न रहे तो
मेरा सर नही झुकेगा
कितने भी चौराहे आए
कभी प्रवास नही रुकेगा ।
अपनी दुर्बलता या विवशता पर
विजय हासिल करके रहूंगा
युद्ध को अंतिम क्षण तक
साहस के साथ लड़ता रहूंगा ।
रचयिता
शेखर देशमुख
J-1104, अंतरिक्ष गोल्फ व्यू -2
सेक्टर 78, नोएडा (उ प्र)