चोका:- जमीन
मैं जमीन हूँ
मात्र भूखंड नहीं
जो है दिखता।
मुझमें पलते हैं
वन ,खदान
मरूस्थल,मैदान
ताल, सरिता
खेत व खलिहान
अन्न भंडार
बसी जीव संसार
अमृत जल
मुझसे ही बहार
अमूल्य निधि
हूँ अचल संपत्ति
इंसानों की मैं।
कागज टुकड़ों में
कैद करके
जताते अधिकार
लड़ते भाई
होती जिनमें प्यार
मांँ से प्यारी तू
जीने का है आधार
आज तैनात
देश कगार वीर
बचाने सदा
अस्मिता रात दिन
चिर काल से
साम्राज्यवाद जड़ें
जमीन हेतु
पनपती रहती
खून की धार
अविरल प्रवाह
बहती रही
उसे चिंता नहीं है
क्या हो घटित?
इंसानों की वजूद।
हमें ही चिंता
दो बीघा जमीन की
नींद पूरी हो
जहाँ सदा दिन की
ऋणी हैं जमीन की।
✍मनीभाई”नवरत्न”