चैत्र का मान
चैत्र मास से पूछा खग ने,
मीत कहाँ से तुम आये हो;
मग में अपनी नूतनता नित,
स्वर्णिम आभा बिखराये हो?
या रवि की किरणें अब करतीं,
पीछा तेरी ही निशि-वासर;
चंदा, साथ सितारे लेकर,
रिमझिम गीत गा रहा अंबर?
सरल मेघ सद्भावित होकर,
निमिष मात्र में ओझल होता;
और माह की तरह नहीं यह,
चैत्र माह में बूँदें ढोता।
दे रहीं हैं, इस सादगी की,
नित, नव मिसाल सारी दिशाएँ;
कलरव करते, खगजन उड़ते,
अनुगूँजित दिक दसों विधाएँ।
स्वभाव तेरा चंचल सा ना,
नहीं गूढ़ है यह गहराई;
सतत रहे हो निश्छल मूरत,
मीत कहो यह भाँति ढिठाई।
…“निश्छल”