चेतावनी
वर्षा-पानी के
अभाव में
टुकड़े-टुकड़े होती धरती
क्षितिज तक रोती-बिलखती
अपना फटा कलेजा
दिखाती है
मानव को
कभी अति वर्षा से
बह जाती है
पहाड़ों की
उपजाऊ मिट्टी भी
और
पुनः निकल आता है
धरती का कलेजा बाहर
वह सब कुछ
उगलती है हमारे सामने
क्योंकि
उसे ढंकने वाले वृक्ष
काट लिए हैं हमने
किन्तु
गम्भीर गर्जन करने वाला
सागर
सागर है, धरती नहीं
वह तो
वापस दे मारता है
हमारे मुँह पर
हमारे द्वारा
उसे दी गई गंदगी
और जन्म देता है
किसी सुनामी को
आखिर
पर्यावरण बिगाड़ने का
दायित्व
हमारा ही तो है