चुनौतीपूर्ण होता है शिक्षण
चुनौतीपूर्ण होता है शिक्षण
आमतौर पर शिक्षण को एक सहज एवं सरल व्यवसाय माना जाता है। ऐसा सुनने में आता है कि जो छात्र अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को पूर्ण करने से चूक जाते हैं एवं जिनके डॉक्टर,इंजीनियर,वैज्ञानिक एवं विदेशों में जाकर खूब धन कमाने के सपने चूर चूर हो कर बिखर जाते हैं। वह अंतत अध्यापन क्षेत्र में आ कर अपना जीवन निर्वाह करते हैं। अपने बाल्यकाल से लेकर मैंने शिक्षण के अनेक पड़ावों एवं अनुभवों को अपने पिता एवं गुरुजनों के परिदृश्य में महसूस किया। मैं स्वयं एक शिक्षक हूं और शिक्षक होने के नाते शिक्षा के बदलते परिवेश एवं चुनौतियों को से महसूस कर रहा हूं। जब मुझे मानव संसाधन मंत्रालय,समाचार पत्र दैनिक भास्कर समूह एवं कई अन्य संस्थाओं द्वारा श्रेष्ठ शिक्षण के लिए सम्मानित किया गया था,तब मेरे मन में एक सवाल आया कि मैं अपने विद्यार्थियों से पुछूँ कि उन्हें शिक्षक बनना पसंद है या नहीं।जवाब मिला कि एक भी छात्र इच्छा-शक्ति से शिक्षक बनना पसंद नहीं करता। सभी भारतीय सेना,स्वास्थ्य सेवाओं एवं तकनीकी क्षेत्र में अपना उद्देश्य रखते हैं इसी संदर्भ में गहन विचार करते हुए मेरे दिमाग में बहुत प्र१न आए थे और मैं विवश हो गया की उन पहलुओं पर प्रकाश डालूँ जिस ने छात्रों का रुझान शिक्षण से मोड़ दिया है। क्या बदलते परिवेश में शिक्षण इतना कठिन या महत्वहीन हो गया है कि छात्र इसमें रुचि नहीं ले रहे।
अब मैं 1990 के दशक से 2020 के दशक के उन सभी बदलाव व अनुभवों का वर्णन करुंगा जिसे मैंने स्वयं छात्र रहते,एक शिक्षक का पुत्र रहते व एक शिक्षक रहते हुए महसूस किया और इस बात पर भी प्रकाश डालूंगा कि आज शिक्षण चुनौतीपूर्ण कार्य क्यों है? 1990 के दशक में मैंने अपनी प्राथमिक शिक्षा वितरण कि उन दिनों हमारे शिक्षक हमें एक सौहार्दपूर्ण भयमुक्त एवं तन्यता/लगन के साथ पढ़ाते थे। बेशक शिक्षक वर्तमान की तरह एक अच्छी खासी तनख्वाह एवं आधुनिक उपकरणों की सेवा ही नहीं मिलती थी। फिर भी उनके मन में वह आक्रोश एवं पीड़ा महसूस नहीं होती थी जब हमारे गाल पर चांटा लगाया जाता था तो अध्यापक यह महसूस नहीं करता था कि किसी अभिभावक द्वारा पुलिस थाने में कोई शिकायत दर्ज की जाएगी और तो और अध्यापक बच्चे को गले लगाकर चुटकुले सुनाकर चुप भी करा देता था। वह एक साइकिल पर जरुर आता था लेकिन शाम को बहुत खुशनसीब मानता था।
20वीं सदी के अंतिम दशक में मैंने महसूस किया की शिक्षा के बदलते परिवेश के अनुसार शिक्षक आधुनिक उपकरणों एवं शिक्षा की नई तकनीकों का प्रयोग करने लगा है।आज भी वह समय याद है जब हमें तकनीकी उपकरणों के माध्यम से देशभक्ति की फिल्में दिखाई जाती थी। शिक्षक चाहे कूलर एसी के नीचे ना पढ़ कर पढ़ा कर पेड़ के नीचे एक समूह में कक्षा लेते थे और सामूहिक रुप से बच्चों द्वारा की गई गलतियों पर उनको डांटते एवं सजा भी देते थे। शिक्षकों में आपसी प्रेम,एकता एवं मेल-जोल आज भी उस दृश्य को याद दिलाता है जब सभी अध्यापक खिली खिली धूप में एक साथ बैठकर छात्रों के बारे में चर्चा करते हुए उनके भविष्य की कामना करते थे।
21वीं सदी में शिक्षा एवं शिक्षक के जीवन में कई चुनौतियां लाकर खड़ी कर दी आज एक विद्यार्थी 12 वीं कक्षा के बाद परीक्षा देकर राष्ट्रीय रक्षा अकादमी,पुलिस व अन्य विभागों में अधिकारी बन सकता है लेकिन एक शिक्षक को कम से कम 16 या 17 साल की लगातार कठिन मेहनत के बाद ही शिक्षण मिलता है सरकार के नए नियमों एवं बदलते परिवेश के कानूनों के अनुसार शिक्षक बच्चे को गलत कार्य करने पर डाँटने का भी हकदार नहीं है वह ना तो छात्र को पूर्ण कार्य ना होने पर कक्षा में कुछ कह सकता है और न हीं वह एक छात्र को डांट सकता है उसे तो यह भी अधिकार नहीं है वह ऊंची आवाज में बच्चों को गलत कार्य करने से रोके। आए दिन हम अपने आसपास की खबरें पढ़ते हैं कि अभिभावक द्वारा शिक्षा के खिलाफ शिकायत दर्ज कराई गई, अभिभावक द्वारा शिक्षा के खिलाफ नारे लगाए गए,छात्र ने शिक्षक की बात अनसुनी कर दी,सरकार द्वारा शिक्षक को बच्चों को गृह कार्य न करने पर डांट लगाने पर चेतावनी भरा पत्र दिया है। कल ही अखबार की प्रमुख खबर थी कि शिक्षक द्वारा छात्र को कुछ समय कक्षा में खड़े रखा गया है क्योंकि छात्र नियमों की अवहेलना कर रहा था। इस बात को लेकर छात्र ने जीवन-लीला समाप्त कर ली। क्या आज संयम,सहनशीलता, त्याग,बलिदान,गुरु-भक्ति और गुरुजनों के प्रति सरकार, छात्र व अभिभावक पर भरोसा नहीं है? क्या हम एकलव्य,कर्ण,अर्जुन, राम-लक्ष्मण एवं शिवाजी जैसे उन महान लोगों एवं गुरु-भक्तों की परिभाषा भूल गए हैं? जिन्होंने मात्र गुरु के आदेश एवं अपने आदर्शों के चलते अपने जीवन को ही ताक पर रख दिया था। वर्तमान का दौर आधुनिक तकनीक का दौर कहा जाता है। लेकिन इसका अभिप्राय यह तो कतई नहीं है कि हम शिक्षण, मूल्य, संस्कारों एवं भारतीय सभ्यता की महान परंपरा को ही भूल जाएं। अपने गुरुजनों का सम्मान एवं उनके समक्ष नैतिक मूल्यों का ह्रास कर दें। वर्तमान 2020 के दशक में तो छात्र शिक्षण में रुझान ही नहीं रखते। उनका नजरिया है कि यह एक निम्न स्तर का व्यवसाय है। इसका कोई महत्व नहीं है। इतना ही नहीं अपने नज़दीकी अनुभव से यह बताना चाहूंगा कि शिक्षक स्वय भी इस व्यवसाय में थका सा महसूस करता है। वह यह सोचता है कि क्यों न हम किसी अच्छे व्यवसाय चुनें। प्रश्न यह आता है कि क्या अच्छा और क्या बुरा ? मेरे एक सहकर्मी ने शिक्षण यह कह कर छोड़ दिया कि इसमें भविष्य नहीं है और आगे बढ़ने के आसार नहीं है। क्या मैं यह मान लूँ कि आगे बढ़ना केवल ज्यादा पैसा कमाना है, ज्यादा आरामदायक नौकरी करना है व कम चुनौतियों का सामना करना है। क्यों ना हम इस सोच एवं चुनौती को एक अलग नजरिए से देखें।
सर्वप्रथम जब तक एक शिक्षक अपने व्यवसाय से प्रेम नहीं करेगा उसे आत्म संतुष्टि नहीं होगी। चाहे वह एक अध्यापक हो, इंजीनियर हो,डॉक्टर या अधिकारी। आत्म संतुष्टि के बगेर कोई भी कार्य आसान नहीं है। दूसरा अपने आप को बदलते परिवेश में डालना सीखे। समय नियमों और कानूनों को दाव पर रखकर शिक्षण करने की अपेक्षा आप स्वयं को बदल कर अपने ज्ञान का विस्तार करें। यह कतई गलत नहीं है कि आप छात्र को गलत कार्य के लिए रोकें। गृह कार्य के लिए कहें। कुसंगति के लिए मना करें। क्योंकि अध्यापक समाज का निर्माता कहा जाता है।उस पर अन्य सभी व्यवसाय के लोगों की अपेक्षा अधिक जिम्मेदारियां होती हैं। वह ठीक उसी मूर्तिकार की तरह है जो किसी भी आकृति को सुधार या बिगाड़ सकता है।उन पहलुओं को ध्यान में रखते हुए आप स्वयं भी मर्यादा एवं अपने पद की गरिमा बनाए रखें। बच्चों में उन्हें भावनाओं का विकास करें जिससे वह आपसे प्रेम एवं सामंजस्य बनाए रखें। आप छात्र एवम छात्राओं के गुणों एवं अवगुणों की पहचान करें और उनका समय-समय पर मार्गदर्शन करें।चुनौतियों का हर क्षेत्र में व्याप्त हैं अगर जरुरत है तो उन्हें हथियार बनाकर उनका सामना करने की और पथ प्रदर्शक की भूमिका निभाने की।अध्यापक होना गर्व की बात है।
कठिन दौर है डगर पढ़ाने की,
मगर हार इसका समाधान नहीं,
रखो स्वयं पर पूरा भरोसा,
फिर मुश्किल का कोई काम नहीं।