चिंतन
डॉ0 मिश्र का चिंतन
पावन चिंतन की प्रतिमा हो
(चौपाई)
पावन चिंतन की प्रतिमा हो।
मन महानता की गरिमा हो।।
मन को कभी न बुझने देना।
मन तरंग को बहने देना।।
तुम्हीं बनो इक सुंदर सा जग।
उड़ो विश्व को लेकर बन खग।।
सकल सिंधु हो एक विंदु में।
हो ब्रह्माण्ड एक इंदु में।।
सबको सहलाते ही जाना।
सबका दिल बहलाते जाना।।
सबके दिल में बैठ निरन्तर।
सबको ले जा अपने भीतर।।
भोग त्याग कर त्यागरती बन।
ज्ञानवान हो सरस्वती बन।।
शिव सा हो परिधान तुम्हारा।
कल्याणी संधान तुम्हारा।।
मनज -पोत में सबको भर लो।
सारे जग को कर में कर लो।।
एक इकाई की समता हो।
मन में प्रिय स्थिर शुचिता हो।।
सुख की इच्छा दुःख का कारण (चौपाई)
सुख की इच्छा दुःख का कारण।
मरा जा रहा मनुज अकारण।।
इच्छाओं में माया रहती।
माया ही जीवों को ठगती।।
माया को जो समझ गया है।
माया के विपरीत गया है।।
माया से जो मुक्त हो गया।
उसका जीवन सफल हो गया।।
माया में जो फँसा हुआ है।
दलदल में वह धँसा हुआ है।।
माया प्रबल समायी मन में।
फैली हुई सहज जन-जन में।।
इच्छओं को तब मारोगे।
बुधि-विवेक से काम करोगे।
धीरे-धीरे कम करना है।
सुख की इच्छा से हटना है।।
सुख की इच्छा मिट जायेगी।
दुःख की रेखा पिट जायेगी।।
हो प्रशांत आनंद करोगे।
सहज सच्चिदानंद बनोगे।।
संवेदनहीनता (दोहे)
कैसे मानव हो रहा, अति संवेदनहीन।
चौराहे पर है खड़ा, बना दीन अरु हीन।।
भौतिकता की ओढ़कर, चादर चला स्वतंत्र।
चाहत केवल एक है, चले उसी का तंत्र।।
धनलोलुपता गढ़ रही, धूर्त पतित इंसान।
धन के पीछे भागते, भूत प्रेत शैतान।।
भावुकता अब मर रही6, हृदय बना पाषाण।
काम क्रोध मद लोभ के, कर में दिखत कृपाण।।
नैतिकता को कुचल कर,कौन बना भगवान?
नैतिक मूल्यों में बसा, अति सुंदर इंसान।।
जहाँ सहज संवेदना, वहाँ अलौकिक देश।
लौकिकता के देश में, कुण्ठा का परिवेश।।
संवेदन को मारते, जीवन को धिक्कार।
भावुक कोमल हृदय ही, ईश्वर को स्वीकार।।
नारी! तुम सचमुच आराध्या
(चौपाई)
नारी! तुम सचमुच आराध्या।
सकल सृष्टि में प्रिय साध्या ।।
तुम ब्रह्मलोक की रानी हो।
सहज पूजिता कल्याणी हो।।
तुम कृष्ण कन्हैया की राधा।
तुम प्रेममूर्ति हरती वाघा।।
तुम रामचन्द्र की सीता हो।
विश्वविजयिनी शिव गीता हो।।
बोझ समझता जो तुझ को है।
नहीं जानता वह तुझ को है।।
बहुत कठिन है तुझे समझना।
तुम आदि सृष्टिमय प्रिय गहना।।
तुम हृदये स्थित करुणासागर।
अति व्यापक विशाल हिम नागर।।
तुम हिम गंगे शीतल चंदन हो।
तेरा ही नित अभिनंदन हो।।
सखी सखा अरु मित्र तुम्हीं हो।
सत्य गमकती इत्र तुम्हीं हो।।
परम दयालु कृपालु महातम।
तुम आलोक लोक हरती तम।।
दिव्य वर्णनातीत अलौकिक।
सृष्टि शोभना सरस अभौतिक।।
तुम्हीं ज्ञानमय प्रेममयी हो।
सभ्य सलोनी भक्तिमयी हो।।
जिसे देख मन खुश हो जाता
(चौपाई)
जिसे देख मन खुश हो जाता।
हर्षोल्लास दौड़ चल आता।।
वह महनीय महान उच्चतम।
मनुज योनि का प्रिय सर्वोत्तम।।
परोपकारी खुशियाँ लाता।
इस धरती पर स्वर्ग बनाता।।
सब की सेवा का व्रत लेकर।
चलता आजीवन बन सुंदर।।
कभी किसी से नहीं माँगता।
अति प्रिय मादक भाव बाँटता।।
मह मह मह मह क्रिया महकती।
गम गम गम गम वृत्ति गमकती।।
उसे देख मन हर्षित होता।
अतिशय हृदय प्रफुल्लित होता।।
मुख पर सदा शुभांक विराजत।
दिव्य अलौकिक मधुर विरासत।।
डॉ0 रामबली मिश्र की कविताएँ जीवन के विभिन्न पहलुओं को छूती हैं और पाठकों को जीवन के बारे में सोचने और अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करती हैं। उनकी कविताओं में एक गहरी दार्शनिकता और जीवन के प्रति एक सकारात्मक दृष्टिकोण है।
इन कविताओं में कुछ मुख्य विषय हैं:
1. पावन चिंतन और मन की महानता
2. सुख की इच्छा और दुःख का कारण
3. संवेदनहीनता और भौतिकता
4. नारी की महत्ता और पूज्यता
5. परोपकार और सेवा का व्रत
इन कविताओं से पता चलता है कि डॉ0 रामबली मिश्र जीवन के विभिन्न पहलुओं को छूते हैं और पाठकों को जीवन के बारे में सोचने और अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करते हैं।
कुछ मुख्य बिंदु जो इन कविताओं से निकलते हैं:
1. पावन चिंतन और मन की महानता जीवन के लिए महत्वपूर्ण हैं।
2. सुख की इच्छा दुःख का कारण बन सकती है।
3. संवेदनहीनता और भौतिकता जीवन को खराब कर सकती हैं।
4. नारी की महत्ता और पूज्यता जीवन के लिए आवश्यक है।
5. परोपकार और सेवा का व्रत जीवन को सुंदर बना सकता है।
इन कविताओं से पता चलता है कि डॉ0 रामबली मिश्र जीवन के विभिन्न पहलुओं को छूते हैं और पाठकों को जीवन के बारे में सोचने और अपने जीवन को बेहतर बनाने के लिए प्रेरित करते हैं।