चारदिवारी
गुज़रते गुज़रते ज़िंदगी कहां आ गई है। सब समेटने में कब सब बिखर गया , सुमन लगातार हाथ की लकीरो में खोज रही थी। नमकीन आंखे भीतर भीतर बरस रहीं थीं , अधरों से कब उसने मुस्कुराहट चुरा ली थी और क्यूं, समझ नहीं आ रहा था।
निखिल , जिसकी अर्धांगिनी हूं , उसी ने वो उंगली उठा दी जिसे पकड़ अपना आंगन छोड़ चली आई थी। आत्मसम्मान किसमें ? साथ रहूं कि समाज न उंगली उठा सके या कि मैं खुद—जिसका अस्तित्व ही मिट रहा था।
सुमन आज भी चारदीवारी लांघ न पाई।