चाटुकारिता
प्रस्तुत रचना सभी पत्रकारों और अखबारों के लिए नहीं है अतः क्षमा के साथ निवेदित कर रही हूँ।
लोकतंत्र के चौथे खंभे,
तुम तो पूरे भाँड़ हो गये।।
सुन सुन कर अपनी तारीफें,
वे तो छुट्टा सांड़ हो गये।।
आमों को इमली बतलाना,
फितरत खूब तुम्हारी होगी।।
काने को काना कहने की,
क्या हिम्मत भी पूरी होगी।।
बिके हुए अखबारों सुन लो,
तुम हो एक चिकित्सक जैसे।।
सत्ता की बीमारीं कहना,
फर्ज समझ कर पूरे मन से।।
इक दर्पण का रूप तुम्हारा,
चेहरा सबका दिखलाओ तो।।
खुद को बेंच न कालिख पोतो,
मुंह काला मत करवाओ तो।।