चल रही हैं आँधियाँ जो रुख पलटकर मोड़ दो.
पुष्प मसले और कुचले जा रहे अधिकार से.
आसुरी ये कृत्य दानव वृत्ति के व्यापार से.
घाव सतही सामने पर चोट झेला जो हृदय,
भांप अंतर्मन द्रवित अति, वेदना के भार से..
हर कदम पर हैं दरिन्दे, चूस लेते जो लहू.
सो रहे रहबर सिपाही उनसे क्या हो गुफ्तगू.
आबरू लुटती रही परिवार बेबस देखता,
अब नहीं कोई सुरक्षित बहन बेटी या बहू..
ध्वस्त है सारी व्यवस्था आस उससे छोड़ दो.
बढ़ रहे जो हाथ शातिर लो पकड़ बस तोड़ दो
दो सजा ऐसी कि उफ़ तक कर न पायें वे कभी ,
चल रही हैं आँधियाँ जो रुख पलटकर मोड़ दो..
–इंजी० अम्बरीष श्रीवास्तव ‘अम्बर’