*चले आओ खुली बाँहें बुलाती हैँ*
चले आओ खुली बाँहें बुलाती हैँ
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चले आओ खुली बाँहें बुलाती हैँ,
कहें कैसे हमें यादें सताती हैँ।
घटा काली,चढी नभ में,न जीने दे,
हवा शीतल तन-बदन जलाती हैँ।
उडी नींदे,नयन भारी, बहें आँसू,
तड़फ तेरी सरद रातें जगाती हैँ।
बुरी बाते,कही उसने, सही हमने,
अगन सीने लगी है जो रुलाती है।
सदा से प्यार टेढ़ी राह मनसीरत,
बहुत सारी सजाएँ सुनाती हैँ।
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सुखविन्द्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)