” चलन “
वर्जनाएं ढहीँ, सब सितम, हो गए,
जैसे पत्थर के अब तो, सनम हो गए।
यदि न पहचान पाया वो, क्यों दोष दूँ ,
भूल जाने के, अब तो, चलन हो गए।
रात्रि जाती रही, दिल दुखाती रही,
कितने अरमान, उर मेँ दहन हो गए।
बादलों मेँ ही, छुपने का वादा था पर,
चाँद के भी, तो झूठे, वचन हो गए।
काश, मुझको भी इक मित्र, ऐसा दिखे,
जिससे मिलकर लगे, हम सहज हो गए।
किसको अपना कहूँ, समझ पाता नहीं,
रिश्ते नातोँ के, भी तो, पतन हो गए।
धुन्ध सारी छँटी, धूप फिर खिल उठी,
दूर अब, मेरे सारे, भरम हो गए।
खेल “आशा”, निराशा का चलता रहा,
अश्रु कुछ बह गए, कुछ रहन हो गए..!
रहन # गिरवी रखना, to mortgage