चन्द श़ेर
मय़खाने में बैठे वो ग़म को ग़लत कर रहे थे । होश़ में जब आए तो पाया खुद ग़लत हो रहे थे ।
दौलत और श़ोहरत ज़िंदगी भर कमाई जब जुदा हुए तो चार कंधे ही काम आए ।
ज़िस्म के क़फ़स में क़ैद रू़ह का पंछी फड़फड़ाता है। मौ़का पाते ही जिसे उड़ जाना है ।
ग़मज़दा लोगों में न रहा करो । कहीं तुम्हारा स़ब्र बिख़र न जाए कभी ।
खुद को अक्लमंद समझ हम उनकी हस्ती नकारते रहे। वक़्त की ग़र्दिश में हम ही सबसे बड़े ज़ाहिल निकले ।
कहना तो चाहता था बहुत पर कुछ कह ना सका ।
अल्फ़ाज़ जम से गए से गए आवाज़ ने साथ ना दिया ।