चन्दन कुमकुम – उत्तुंग शिखर
रानीखेत से क़रीब 5 किलोमीटर दूर चिलियानौला जाते हुए रास्ते के दाहिनी ओर एक पहाड़ी पर श्री श्री 1008 बाबा हैड़ाखान का संगमरमर से बना भव्य मंदिर स्थित है । प्राप्त विवरण के अनुसार ये बाबा सन 1970 से 1984 के बीच रानीखेत में प्रगट हुए थे । इनके अधिकतर विभिन्न धर्मावलम्बी अनुयायी देश विदेशों में रहते हैं तथा स्थानीय निवासियों में भी इनकी बहुत मान्यता है । अपने रानीखेत के प्रवास के दौरान एक बार नवरात्रि के दिनों में मुझे किसी ने बताया कि इस मंदिर में सुबह 4 बजे से बाबा जी भक्तों के माथे पर अलौकिक चंदन का लेप लगाते हैं जिसे पहले बाबा हैड़ाखान जी स्वयं अपने हाथों से लगाया करते थे तथा कालान्तर में अपनी इस कला की दीक्षा वे अपने इन्हीं ख़ास शिष्य के हाथों में सौंप गये थे । नवरात्रि के दिनों में दुर्गा पूजा की छुट्टियां होने के कारण वहां विशेषकर देश के पूर्वी राज्यों से आये पर्यटकों और अन्य विदेशी सैलानियों का भी जमावड़ा लगा रहता था । उन्हीं दिनों कौतूहलवश एक बार मैं भी सुबह 3:30 बजे उठ कर हल्के ऊनी वस्त्रों में तैयार हो कर सुबह सुबह तारों की छांव में कार की रोशनी के सहारे चन्दन लगवाने वहां पहुंच गया । एक कक्ष के बाहर स्थित बरामदे में पहले से करीब पचास महिलाओं एवम परुषों की लगी कतार में मैं भी लग कर खड़ा हो गया । शांत नीरव रात्रि के अंधकार में पीले बल्ब की रोशनी में हमारी लाइन धीरे धीरे कक्ष की ओर बढ़ने लगी जहां बाबा जी चन्दन लगा रहे थे । पास जाने पर देखा कि शांतस्वरूप बाबा जी पालथी लगा कर एक चौकी पर आसीन थे उनका मुख कक्ष के प्रवेश द्वार की ओर था । अंदर मद्धिम प्रकाश वाले वातावरण में एक मोहक खुशबू फैली हुई थी । चन्दन लगवाने से पूर्व भक्तगण पहले बाबा जी के सामने बैठ कर हाथ जोड़ कर उनके नतमस्तक होते थे फिर घूम कर अपनी पीठ फेर कर अपना सर बाबा जी की गोद में लिटा कर अपना मुखमण्डल बाबा जी की ओर कर देते थे , ततपश्चात बाबा जी अपने बाएं हाथ से भक्त के सिर को अपनी गोद मे स्थिर कर अपने पास रखे चन्दन के लेप से भरे कटोरे में अपनी दायीं हथेली डुबो कर अपनी उंगलियों को मिला कर उसके पूरे माथे पर चन्दन का लेप लगा देते थे । अन्य भक्तों में इस क्रिया को देखते देखते कब मेरी बारी आ गई पता ही नहीं चला , कुछ ही पलों में मैं मन्त्रमुग्ध यन्त्रवत बाबा जी के सामने नतमस्तक था फिर पल भर में जड़वत हो मेरा सिर उनकी गोद में था , कि तभी कोमलता से मेरा सिर स्थिर कर उनकी चार उंगलियों का सरकता , शीतल , सुवासित स्पर्श मेरे भी माथे पर चंदन लगा चुका था । मेरे सिहरन से भरे उठे बदन की एक श्वास में चन्दन , केसर , कपूर , केवड़ा और गुलाबजल आदि से बने लेप की सम्लित सुगंध का विस्फोट मेरे मन मस्तिष्क पर छा गया और मैं सम्मोहित सा बाहर आ कर बरामदे में बिछी दरी पर बैठे लोगों की संगत में आ कर बैठ गया । मेरी हर श्वास में घुली सुगन्धित चन्दन की मोहक शीतलता मेरे मन , मस्तिष्क और आंखों से होती हुई गले के भीतर तक अपना प्रभाव डाल रही थी ।
बाहर बरामदे में बिछी दरी पर बैठे कुछ लोग हारमोनियम और तबले पर किसी गायक की आराधना के स्वरों को साथ दे रहे थे तथा बाकी लोग उनका गायन बड़ी एकाग्रता से सुनने में खोये हुए थे । उसदिन मधुराष्टकं एवम राजराजेश्वरी के पदों को शायद पहली बार इतने आनन्द के साथ आत्मसात किया था । कुछ देर बाद संगत उठ खड़ी हुई और हम सभी लोग बरामदे से बाहर निकल कर प्रांगण में आ गये । पौ फटने को थी । कुछ लोग किनारे पर लगी बेंचों पर तो कुछ पैरापट पर जड़ी शिलाओं पर बैठ गये बाकी लोग छितर कर प्रांगण में शांत हो कर खड़े हो गए । हमारे सामने एक बहुत गहरी और चौड़ी खाई थी जिसका नाम घिंघारी खाल था और उसके पार पर्वतराज हिमालय स्थित था । तभी हमारे पीछे से मध्यम स्वरों में किसी ने मृदङ्ग पर थाप देना शुरू किया । धग तिक , धग तिक – धागे धागे , तिक तिक……. थाप की लय पर कुछ लोगों के कदम अपने आप थिरकने लगे , फिर पता ही नहीं चला कब मैं भी उनके साथ झूमने लगा । एक ताल , एक सुर , एक लय पर हम सबको एक साथ कुछ देर तक नृत्य करते हुए हमें पसीना आने लगा तथा तन और मन ऊर्जा से भर गया । कुछ देर बाद पौ फटने के साथ आकाश में तारे डूबने लगे और पूर्व दिशा से लालिमा का प्रकाश फैलने लगा जिसमें सामने के विशाल पर्वतों की श्रंखला आकार लेने लगी । फैलती आभा ने सूर्योदय का संकेत दे दिया था। पार्श्व से आ रही मृदंग की थाप थम गई थी । हम सब शांत हो कर पूर्वोत्तर दिशा की ओर उन्मुख हो प्रकृति के अद्भुत नज़ारे के दर्शनार्थ तत्तपर थे । फिर धीरे धीरे उगते सूरज की स्वर्णिम किरणें पड़ने पर विश्व में केवल उस स्थान से परिलक्षित नयनाभिराम दृश्य में 480 किलोमीटर में विस्तृत पर्वातराज हिमालय की त्रिशूल , हाथी पर्वत , चौखम्बा , पंच शूली एवम नन्दा देवी नामक पर्वतों की छोटियां मानों चमकीला सोने का मुकुट पहन कर प्रगट हो रहीं थीं । सूरज उपर चढ़ने के साथ साथ उन पर पड़ने वाली सतरंगी किरणों के बदलते रंगों का प्रकाश उन चोटियों की बर्फ़ और ग्लैशियर्स से परिवर्तित हो कर रंगों की जादुई छटा बिखेर रहे थे । कुछ देर में प्रकाश शिखरों से फैलता हुआ उस विशाल घाटी में भरने लगा और पर्वत शृंखला सफेद दूधिया सी चमकने लगी । एक ड्रोन में लगे कैमरे सदृश्य जब आंखे सामने पर्वत शिखरों से नीचे सरकती हुई घाटी को देख रहीं थीं , उस समय घाटी सफेद – सिलेटी मुलायम रुई समान हल्के ऊदे बादलों से भरी थी मानों किसी धुनिये की रात भर की मेहनत का फल हो । कुछ और देर बाद धूप निकल आयी और कुछ देर के बाद सूरज का गोला नीले आकाश में चमकने लगा । घाटी में भरे बादलों पर गुनगुनी धूप पड़ने से वो धीरे धीरे ऊपर उठने लगे और हमारे चारों ओर धुंद और कोहरा बन कर फैलने लगे । वहां की सुगन्ध ,शीतल , मन्द पवन को हम लोग एक कस्तूरी मृग की भांति खोज रहे थे जबकि वो वहां के चीड़ और देवदार के घने वनों की बीच से आती हवा में समाई उनकी महक और हमारे ही भाल के चन्दन की महक में मिल कर हमारे आस पास बह रही थी । उधर हिमाच्छादित उत्तुंग शिखर अपनी ही तलहटी से ऊपर उठते बादलों की ओट में छुपने लगे । भोर के विभोर में डूबे हम लोग भी प्रांगण से चल कर हैड़ाखान बाबा के मंदिर में एकत्रित होने लगे । वहां एक विशाल हॉल के उत्तरी सिरे पर बाबा की सफेद संगमरमरी प्रतिमा स्थापित थी । जिसके सम्मुख हम सब बैठ गये । उनकी मूर्ती के सामने एक भक्त सितार वादन कर रहा था जिसके हॉल में गुंजायमान स्वरों की झंकार के वशिभूत हो कर उपस्थित संगत शांत हो कर बैठी रही । वहां उपस्थित भक्त जनों के चन्दन लेपित कुमकुम शोभित हर मस्तक पर मानों उगता सूरज अपनी छाप छोड़ गया था जिसकी सुवासित गन्ध हॉल में भी छाई हुई थी । कुछ देर बाद नगाड़ों , खड़ताल , घण्टों और मंजीरों के घोर नाद के साथ सबने खड़े होकर सम्वेत स्वरों में बाबा जी की आरती आरंभ की । आरती के बाद प्रशाद ले कर सब लोग बाहर आ गये । पहाड़ी कोहरे और ठण्ड को पार करता हुआ मैं कार में आकर बैठ गया । कार की फॉग लाइट जला कर गियर डालने से पहले मैंने कोहरे में एक बार फिर उत्तर दिशा की ओर देखा जहां के दृश्य अब कोहरे और बादलों में छुप गये थे । ऐसा लगा मानो अम्बर और धरती के बीच एक खिड़की कुछ देर के लिये खुली थी जहां जल ठोस , तरल और वाष्प के रूप में अपनी तीनों अवस्थाओं में एक साथ सूरज के रंगों से मिल कर प्रकृति के कैनवास पर नये दिन के शुभारंभ की घोषणा कर रहा था । जहां धरती , अम्बर , चांद , सितारे , सूरज , दिग दिगन्त में निशा के गमन और ऊषा के आगमन के इस सन्धिकाल में एक दूसरे को विदा देते हुए मानों प्रतिदिन के संचालन का कार्य भार लेने और देने के लिये मिले थे।
आज भी जब कभी अपनी स्मृति के गलियारों में विचरण करता हूं तो उस दिन हैड़ाखान बाबा के मंदिर में उस सूर्योदय स्थल पर खड़ा अपने को उस स्वप्निल सूर्योदय के द्रश्य को साकार पाता हूं ।
इस परिवर्तनशील संसार में हमेशा कहीं न कहीं कुछ न कुछ वैसा ही बना रहता है , जहां हर दिन उगता सूरज अपने नित नूतन रंगों को बिखेरता नये दिन की घोषणा कर हमारे लिये यह संदेश देता है कि हमें अपने जीवन के हर दिन की शुरुआत नये रंगों से नए ढंग से नए मन से करें ।
अपने जीवन के आज के रंगों को बचा कर न रखें , उन्हें खर्च करें , कल का सूरज नये दिन के साथ हमारी झोली फिर नये रंगों से भर दे गा ।
अक्सर हम कल की आशा में जीते जीते आज के खुशी के पलों को गवां देते हैं जबकि प्रतिदिन उगता सूरज अपने रंगों से हमें केवल आज में जीने का संदेश देता है , वो रंग वो पल केवल आज के लिये होते हैं विश्वास करें कल फिर नया सूरज नये रंग नये पल नये अवसर लेकर जीवन में फिर चमके गा । इसलिये आज में जियें।