चक्की
रोज सुबह आटा पीस कर खिलाने वाली,
दाल दलने से लेकर चने को बेसन बनाने वाली।
वो चक्की आज बडी उदास है क्यूंकि नहीं पीसता अब कोई सुबह सुबह आटा।
नही घुमाया जाता न ही हिलाया जाता अब किसी के द्वारा सुबह सुबह उसका पाटा।
बदलते समय के साथ साथ अब उसकी जरूरत बहुत अधूरी हो गई है।
ऐसा लगता है घर के एक कोने में पड़ी अब वो चक्की बहुत बूढ़ी हो गई है।
आ गईं है उसकी नई मॉर्डन पीढ़ियां मशीनों में लग कर बढ़ गई है जिनकी कीमत,
हाथ की चक्की से विकसित होकर मानो वो बहुत आगे बढ़ गई है पढ़ लिखकर।
अब इस हाथ से चलाए जाने वाली की कहानी थोडी छोटी और अधूरी हो गई है।
ऐसा लगता है घर के कोने में पड़ी वो चक्की अब बहुत बूढ़ी हो गई है।
अब शायद उसके दुनियां से जाने की तैयारी है क्योंकि नई पीढ़ी भी बदलने वाली है।
सब व्यस्त हो रहे है भाग दौड़ में समय नही अब चक्की को समय देने का।
कोने में रखी अब बेकार सी लगती है कोई मतलब नहीं अब घर में इसके होने का ।
पर पूर्वजों की तरह वो कई एक यादों से और पूजा में आज भी जुड़ी है,
किसी रोज फिर काम आयेगी उम्मीदों में किसी उम्मीद से वो आज भी बंधी है।
वो पुरानी दो पाटों बाली भारी सी चक्की पुराने से कोने मे आज भी रखी है।
स्वरचित एवं मौलिक
कंचन वर्मा
शाहजहांपुर
उत्तर प्रदेश