****** घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार ******
****** घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार ******
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ना कोई ठौर ठिकाना ना ही घर -द्वार हैँ,
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार हैँ।
हररोज बंजारे लोग बदलते रहते हैँ डेरा,
जोगियों सा उनका होता दर बदर फेरा,
खानाबदोशी जन जीवन सुंदर संसार है।
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहारहै।
सर्प सी बल खाती बंजारन चली आती,
नाक में नथनी कान में बाली बड़ी भाती,
खुदा ने बख्शा गोरा वर्ण रूप उपहार है।
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार है।
घाघरा कुर्ती पहनकर बनाती औजार हैँ,
मर्दों सी बहादुरी ले हाथों में हथियार हैँ,
छैल छबीली छोरियाँ तीखे नैन कटार है।
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार है।
लंबी सी मूँछे पहनते धोती कुर्ता हार है,
आन-बान से हैं सहते पगड़ी का भार है,
छैल छबीले छोरे कद काठी है अपार हैँ।
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार हैँ।
मनसीरत बजती घंटियाँ बैल गलहार में,
गाड़ी लुहारे आ गए नदी के इस पार में,
ले लो जो लेना चले जाएंगे उस पार हैँ।
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार हैँ।
ना कोई ठौर ठिकाना ना ही घर द्वार है।
खुली हवा में घूमते घुमंतू गाड़ी लुहार है।
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सुखविंद्र सिंह मनसीरत
खेड़ी राओ वाली (कैथल)