घर
घर
बचपन की आँख मिचोली को अपने आगोश मे लिपेटे याद आता है घर ,
घुटनों के बल सरक-सरक घर की दिवार से मिट्टी खाने का स्वाद है घर।
बचपन की इन अस्पष्ट यादों के धुधले चलचित्रो से सजा याद आता है घर,
निकल पडते है हम कुछ पाने के लिऐ माँ-बाप का आशीष लेकर,
बडे विश्वास के साथ कहती है माँ जा बेटा कुछ पायेगा हम से दुर रह कर।
दिल मे बस उन उन्मुक्त दिनों की याद समेट कर बैठा है घर॥
आगे बडे बडते ही गये हर बाधा का परिहास करते हुऐ,
याद आता है माँ के हाथ से बनी महेरी का कलेवा,
मोह बडता गया अपने पिछे रह गये अब स्पष्ट नजर आता है जीवन का छलावा। लेखक राहुल आरेज उर्फ फक्कड बाबा