घर वापसी
घर वापसी
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पापा, अभी कितना और चलना है, घर कब पहुँचेंगे, नन्हीं मुनिया ने राकेश से पूछा।
पहुँच जायेंगे बिटिया, जल्दी पहुँच जायेंगे, कहते कहते राकेश का स्वर भर्रा गया था।
तीन दिन हो गये चलते चलते, मुनिया अब परेशान होने लगी है, अभी और कितने दिन लगेंगे, राकेश की पत्नी संतोष ने पूछा।
मुनिया की माँ, अभी तो कई दिन लगेंगे, लेकिन जब घर से निकल आये हैं तो परेशानियां तो सहनी ही पड़ेंगी। वहाँ भी तो परेशान ही थे। न नौकरी रही, न आमदनी, ऊपर से मकान मालिक रोज मकान खाली करने को धमका रहा था। राकेश ने संतोष को समझाया।
हुम्म: वो तो अच्छा हुआ, मैंने मोटे मोटे रोट और मठरियां बनाकर साथ में रख ली थीं चार पाँच दिन का काम तो चल ही जायेगा, यहाँ तो रास्ते में कहीं कोई दुकान या ढाबा भी खुला हुआ नहीं मिल रहा, संतोष बोली।
लॉकडाउन को चालीस दिन हो चुके थे। पास की जमापूँजी खत्म हो चुकी थी। किसी से कोई सहायता की उम्मीद न थी। न रेलें चल रही थी न बसें। जी कड़ा करके उसने पैदल ही घर वापसी का निर्णय ले लिया। सिर पर बड़ी सी अटैची, पत्नी के पास भी एक गठरी थी और पाँच साल की नन्हीं मुनिया भी पैदल पैदल चल रही थी।
शाम हो चली थी। रास्ते में एक छोटा सा मंदिर देख कर राकेश बोला, आज की रात यहीं गुजार लेते हैं।
मंदिर बंद था। दोनों ने नल पर हाथ मुँह धोकर खाना खाया, मुनिया को खिलाया और चबूतरे पर लेट कर बतियाने लगे।
ऐसे ही चलते रहे तो दो दिन और लगेंगे गाँव पहुँचने में, राकेश बोला।
हूँ; घर तो पहुँच जायेंगे, लेकिन अब करेंगे क्या। नौकरी तो चली गयी, संतोष ने पूछा।
अरे, अपना पुश्तैनी काम करेंगे। गाँव में अपना मकान दुकान सब कुछ है, पिताजी अकेले काम करते हैं उनसे अब इस उम्र में इतना काम नहीं होता। वही काम सम्हालेंगे। वो तो कहते रहते थे, लल्ला अब मुझसे काम नहीं होता, तुम आकर काम संम्हालो, ये तो हमारी ही मति मारी गयी थी। पढ़ लिखकर बड़े शहर में नौकरी करने की। शहर की तड़क भड़क की जिंदगी जीने की। लेकिन शहर और गाँव का अंतर अब समझ आ रहा है। इतने साल जिस मालिक की नौकरी की उसने चार दिन भी न लगाये हमें बाहर करने में। तनख्वाह भले ही अच्छी मिलती थी, लेकिन बड़े शहर के बड़े खर्चों में सब फुर्र हो जाती थी। सरकार को भी हर साल टैक्स भरते थे, उसने भी हमारी सुध न ली।।
यहाँ, अपना काम होगा, किसी की नौकरी नहीं। चार पैसे कम मिलेंगे , कम खा लेंगे, गम खा लेंगे, लेकिन ऐसे दर दर भटकने की नौबत तो नहीं आयेगी।
बातें बातें करते करते दोनों सो गये, और भविष्य के सपनों में खो गये।
श्रीकृष्ण शुक्ल, मुरादाबाद।
MMIG-69, रामगंगा विहार, मुरादाबाद। उ.प्र.
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