ग्राम्य गीत
‘ग्राम्य गीत’
बन पवन का एक झोंका
डालियों पर झूलता हूँ,
मैं भुला मतभेद मजहब
प्रीति वन की लूटता हूँ।
खेत में अठखेलियाँ कर
मैं भ्रमर सा गुनगुनाता,
तितलियों के दौड़ पीछे
पकड़ उनको मैं सताता।
लू थपेड़ों को डराकर
मस्तमौला झूमता हूँ।।
गोद में नन्हीं कली को
थामकर झूला झुलाता,
प्यार से लोरी सुनाकर
मैं नहीं फूला समाता।
सुमन का सौरभ चुराकर
अँगुलियों को चूमता हूँ।।
चढ़ शिखर छूने चला मैं
बादलों को चहचहाता,
मुठ्ठियों में बूँद भरकर
शोर करता मुस्कुराता।
ओस से गीला हुआ तन
अब ठिकाना ढूँढ़ता हूँ।।
डॉ. रजनी अग्रवाल ‘वाग्देवी रत्ना’