ग्रहण……..
दिल्ली आए तो मुझे बरसों हो आए थे मगर फिर भी मैं इस शहर के लोगों के बीच रच-बस नहीं पाया था। बरसों यहां ज़िन्दगी गुज़ारने के बाद भी यह शहर मेरे लिए पराया का पराया ही था। अपना तो यहां कोई दूर-दूर तक भी दिखाई नहीं देता था। यहां रहने वाला हरेक शख्स मेरे लिए अज़नबी ही था। बस इन लोगों की भीड़ के बीच कोई अपना-सा लगता था तो वह थी पल्लवी जो मेरे बगल वाले मकान में ही रहा करती थी। बस चार साल पुरानी ही तो बात है जब पल्लवी अपने बाबा के साथ यहां रहने आयी थी। इतने साल पास में रहते हुए भी कभी उन लोगों से ढंग से बात तक नहीं हो पाई थी। मगर हां पल्लवी के बाबा से कभी-कभार दुआ-सलाम ज़रूर हो जाया करती थी हालांकि पल्लवी से कभी बात नहीं हो पाई थी। एकदम शांत-सी दिखने वाली पल्लवी को देखकर कभी-कभी लगता था मानो उसे दुनिया से कोई मतलब ही न हो। न ही उसका किसी से लेना-देना था। उसकी तो अपनी ही एक अलग दुनिया थी जिसमें वह खुश थी या दुखी इसके बारे में कोई नहीं जानता था। बरसों से उससे मिलने यहां कोई नहीं आया था और न ही पल्लवी ही किसी से मिलने गई थी। उसका रास्ता तय था बस घर से सीधा ऑफिस और ऑफिस से सीधा घर। बीच में उसका कोई ठहराव नहीं था जहां वह दो घड़ी रुक सकती। उसे देखकर कभी-कभी लगता था मानो इंसान न होकर कोई चलती-फिरती मशीन हो। वैसे पल्लवी हमेशा से ऐसी नहीं थी। कभी तो उनके आंगन में भी जिन्दगी हंसती-खिलखिलाती थी। पढ़ाई पूरी होते ही पल्लवी को बैंक में नौकरी भी मिल गई थी। नौकरी मिलने पर पल्लवी के साथ-साथ उसके बाबा भी खुश थे। मगर उन्हें क्या पता था कि यही नौकरी उनकी बेटी के जीवन में दुख के बीज बो देगी। जिस बैंक में पल्लवी की नौकरी लगी थी उसी बैंक में गिरीश बाबू भी काम करते थे। गिरीश बाबू परदेसी थे। किसी सुदूर प्रदेश से आकर वे यहां नौकरी कर रहे थे। इसलिए सब उन्हें परदेसी बाबू ही कहा करते थे। मगर गिरीश बाबू इसका तनिक भी बुरा नहीं मानते थे। अलबत्ता उन्हें तो यह सब अच्छा ही लगता था। परदेसी बाबू का शहर में कोई और ठौर-ठिकाना नहीं था। इसलिए उन्होंने बैंक के पास ही किराए का मकान ले रखा था। परदेसी बाबू के पास भी जाने कौन- सी ऐसी सम्मोहन विद्या थी कि जो भी उनसे मिलता वही उनके गुण गाने शुरू कर देता। पल्लवी पर भी परदेसी बाबू ने जाने कौन- सा जादू-टोना कर दिया था जो पल्लवी उन्हीं के रंग में रंगती चली गई। देखते ही देखते दोनों का प्यार परवान चढऩे लगा। उनका प्यार कब मर्यादाओं की बंदिशें तोड़ गया उन्हें पता ही नहीं चला। परदेसी बाबू पल्लवी को नित्य नए-नए सब्जबाग दिखाकर उसकी अस्मत से खेलते रहे। उधर, पल्लवी भी परदेसी बाबू के प्यार में अंधी होकर सब कुछ भुलाए बैठी थी। कुछ दिनों बाद परदेसी बाबू के तबादले के आदेश भी आ गए। उनका तबादला किसी दूसरे शहर में हो गया था। परदेशी बाबू जल्दी लौटने का वादा करके शहर छोड़ गए। पल्लवी बरसों परदेसी बाबू की राह ताकती रही मगर न तो परदेसी बाबू लौटे और न ही उनकी कोई खबर आई। पल्लवी उनके इंतज़ार में बावरी- सी हो गई। परदेसी बाबू की राह ताकते-ताकते उसकी आंखें पथरा गयी। उनका इंतज़ार करते-करते पल्लवी हमेशा के लिए खामोश- सी हो गई। उसकी हंसती- गाती ज़िन्दगी में ग्रहण सा लग गया। ‘कहते हैं कि ऊपरवाला भी कभी-कभी तो इतना सुख दे देता है कि उसे संभाला नहीं जाता और कभी-कभी इतना दुख दे देता है कि उसे चाहकर भी जीवन से निकाला नहीं जाता। पल्लवी के बाबा उसकी शादी के लिए मारे-मारे फिर रहे थे मगर पल्लवी का रिश्ता कई जगह से टूट चुका था। उसके बाबा लोगों के सामने गिड़गिड़ाते रहे लेकिन किसी ने उनकी बेटी को वेश्या कह कर तो किसी ने बदचलन का तगमा देकर शादी से इंकार कर दिया। लोगों ने उनका जीना दूभर कर दिया था इसलिए उन्हें अपना मकान बेचकर कहीं और जाना पड़ा। मगर कहते हैं कि दुर्भाग्य सिर्फ जगह बदल लेने से पीछा नहीं छोड़ता। पल्लवी के साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ। उनके मकान बदलने से पहले ही पल्लवी की बदनामी के चर्चे फिजा के साथ उड़कर वहां भी पहुंच गए थे। लोगों के ताने पल्लवी को तरकश के तीरों की शांति भेदने लगे थे। बरसों से बेवफाई का संताप भोगने वाली पल्लवी बिल्कुल टूट चुकी थी। बरसों से प्रेम करने की सजा भुगत रही पल्लवी जीवन से मुक्ति चाहती थी। इसलिए उसने एक दिन फंदा लगाकर अपनी जीवन लीला खत्म कर ली। चांद-सूरज में लगने वाले ग्रहण तो कुछ घंटों में ही खत्म हो जाया करते हैं मगर पल्लवी के जीवन में लगा यह ग्रहण अंतिम सांस तक उसके साथ रहा। जीवन में लगे इस ग्रहण से मुक्ति पाने के लिए पल्लवी बरसों छटपटाती रही मगर जीते जी पल्लवी इस कलंक को न धो सकी। उसके जीवन में लगा ये ग्रहण उसकी अंतिम सांस के साथ स्वत: ही खत्म हो गया।
नसीब सभ्रवाल “अक्की”
-गांव बान्ध, पानीपत,हरियाणा। मो.-9716000302