गौरैया
विधा.. लावणी छंद
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बिन वर्षा जंगल सूखा है, सूखे सब ताल तलैया।
सूखी टहनी पर बैठी हूँ,मैं गुमसुम-सी गौरैया।
उजाड़ दिया आधुनिकता ने,
मेरा हर एक ठिकाना।
छोटे से गमले में बोलो,
कैसे हो वक्त बिताना।
मोबाइल टावर चिमनी नें,
मेरे अपनों को छीना।
जहरीले घातक प्रदुषण में ,
मुश्किल लगता है जीना।
चक्र व्यूह में फँसा ज़िन्दगी,लगता अब भूलभुलैया।
सूखी टहनी पर बैठी हूँ,मैं गुमसुम-सी गौरैया।
बाग गये मुरझा आमों के,
बचे नहीं हैं फुलवारी।
फूल सजे हैं गुलदस्तों में,
लेकिन सूखी है क्यारी।
भटक रही हूँ इधर-उधर मैं,
हर जगह लगाती फेरा ।
आते-जाते खोज रही हूँ,
मिल जाये कहीं बसेरा ।
मेरे घर को नहीं उजाड़ो ,तुम मुझे बचा लो भैया।
सूखी टहनी पर बैठी हूँ,मैं गुमसुम-सी गौरैया।
ढ़ूढ़ रही हूँ दाना-पानी,
बेकल हूँ भूखी- प्यासी।
दूर-दूर तक उड़ने पर भी,
लगती है हाथ उदासी।
ऊँची-उँची महलों वाली,
ये बड़ी फरेबी दुनिया।
खपरैल ढूंढती फिरती हूँ,
मैं तो नन्हीं- सी चिड़िया।
देख दर्द आँखों में उतरा , ये विकट काल की छैंया।
सूखी टहनी पर बैठी हूँ,मैं गुमसुम-सी गौरैया।
हम तो हैं संकट में साथी,
अब तो तुम हमें बचाओ।
छत पर दाना पानी डालो,
हरे-भरे पेड़ लगाओ।
फुदक- फुदक कर सबके दिल को,
मैं हर दिन हर्षाऊँगी।
रोज सुबह अपने चीं -चीं से,
घर-आँगन महकाऊँगी।
रहने दो हमको आंगन में, ले लूँगी सभी बलैया।
सूखी टहनी पर बैठी हूँ,मैं गुमसुम-सी गौरैया।
-लक्ष्मी सिंह
नई दिल्ली