गूंजने लगे हैं स्वर (घनाक्षरी)
घनाक्षरी- १
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गूंजने लगे हैं स्वर, भंवरों के चारों ओर।
खिलने लगे अनेक, पुष्प भांति भांति के।
सहसा ही भंग होती, जा रही एकाग्रता है।
दर्शन सुपावन हैं, सुप्रभात कांति के।
अलि का है राग प्रिय, बिन कोई साज बाज।
हो रहा गुंजायमान, है बिना विश्रांति के।
प्रकृति के वशीभूत, मँडरा रहे मधुप।
दूत हैं सौंदर्य के ये, स्नेह भाव शांति के।
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घनाक्षरी- २
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फिर नयी उमंग ले, आ गया बसंत काल।
गूंजता है आम्रकुंज, कोयल के गान से।
हर एक डाल डाल, खूब है रही मचल।
बसंतप्रिया कोकिला, गा रही है शान से।
कोंपलें नई नई हैं, डालियां सहम रही।
किन्तु मन खुशी भरा, शीत के प्रस्थान से।
है कृपा मां शारदे की, देखिए सभी जगह।
धन्य हो रहे नयन, मां कृपा महान से।
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घनाक्षरी- ३
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कार्य में कुशल है जो, बोलने में वाकपटू।
ऐसे व्यक्ति को सभी से, मिलता सम्मान है।
शूल भरे पथ पर, संभल धरे जो पग।
उसके लिए प्रत्येक, मुश्किल आसान है।
वक्त पे करे जो कार्य, भावनाओं में न बहे,
सत्य साधना में वही, होता शक्तिमान है।
दक्ष और विज्ञ जन, साथ में हो स्नेह शील।
दिखता सामान्य किंतु, व्यक्ति वह महान है।
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घनाक्षरी- ४
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मौसम बसंत का है, सुन्दर खिले हैं फूल।
देखिए लिपट गई, वृक्ष से चारुलता।
वादियां महक उठी, नाचने लगे मयूर।
गुंजन करें भ्रमर, तोड़ते नीरवता।
मन में उमंग लिए, स्नेह भावना प्रखर।
स्पंदित हृदय घट, खूब है छलकता।
दृश्य रमणीक देख, झंकृत हृदय के तार।
देवों को भी दुर्लभ ज्यों, ऐसी है सुरम्यता।
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-सुरेन्द्रपाल वैद्य
मण्डी (हिमाचल प्रदेश)