Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
19 Dec 2019 · 13 min read

गुलमोहर

गुलमोहर

जब भी इस पार्क में टहलने आता हूँ, चमककर वो चेतन चेहरा सामने आ हीं जाता है।
उसे यहीं.. इसी पार्क में जॉगिंग करते देखा करता था। नव्या थी, उम्र यही कोई 24-25 बरस के आसपास की रही होगी, वैसे सच कहूँ तो मेरी वह उम्र बची नहीं कि किसी यौवना को ताडूँ पर एक अजीब सा आकर्षण था उसमें, वो मुझे दिख हीं जाती थी।

जीवन के इस अंतिम चरण में अनजान लोगों के साथ दो पग चलने में भी डर लगता है वैसे भी रिटायर आदमी जो बरसों पहले विधुर हो चुका हो, थोड़ा चिड़चिड़ा हो हीं जाता है। दुनिया से कटकर रहने का आदि हो चुका मैं, अब अपने वानप्रस्थ आश्रम को मुंबई के इस कंक्रीट के जंगल में अकेला काट रहा हूँ, इसलिए उसे देखकर भी अनदेखा कर देना मेरे लिए दिन की शुरुआत बन चुका था

फिर एक रोज उसी ने मुझे टोका
“हाई! आप यहाँ रोज आते हैं??”

“नहीं तो, रोज कहाँ आता हूँ, आज दूसरी बार हीं तो आया हूँ।” -बिना उसकी तरफ देखे मैं उससे झूठ कह गया। संकोच हो रहा था या डर आज तक नहीं जान पाया, आज 5 बरस बाद भी खुद से पूछता हूँ ” कहीं उसने मुझे खुद को देखते तो नहीं पकड़ लिया था अगर नहीं तो आखिर उसने रुककर मुझसे बात क्यों की”

“आप यहीं रहते हैं?”
“हाँ, वो उस कफन सी सफेद बिल्डिंग में” मैं अब संकोच के धुन्ध को चीर कर बाहर आने लगा था। “आप भी यहीं, पास की लगती हैं”

“हिमाचल की हूँ, यहाँ इंडियन फ़िल्म एंड ड्रामा इंस्टीट्यूट से स्क्रिप्ट राइटिंग पर कोर्स कर रही हूँ, आपकी पास वाली बिल्डिंग में अकेली रहती हूँ”

अच्छा, बहुत महत्वाकांक्षी हैं आप, तभी तो घर से इतनी दूर, अकेली…..”

“अकेली कहाँ, आप जैसे दोस्त भी तो हैं” वह खिलखिला उठी
उसकी यह उन्मुक्त हँसी मुझे चीरती हुई मेरे आरपार हो गई, मैं असहज हो गया, कहीं उसने मेरे भीतर के खालीपन को तो नहीं भांप लिया.. जो तरस खाकर मुझसे अपनी दोस्ती की सिफारिश कर दी, क्या सच में मैं भीतर से इतना खाली हो चुका हूँ, मैं भीतर से पूरी तरह भींग गया
“अभी मैं अभी चलता हूँ” कहकर झटके से आगे तो बढ़ गया, पर जाते-जाते न जाने कैसे,
कल फिर मिलने का वादा भी कर आया।

अगली सुबह पार्क जाने में बड़ी शर्मिंदगी हो रही थी, मैं मूरख खुद को इस बात के लिए कन्विंस कर हीं नहीं पा रहा था कि दोस्ती की बात उस लड़की ने यूँ हीं कह दी थी, फिर भी न जाने क्यों मुझे इसी बात से बेचैनी हो रही थी कि कहीं उसे मेरे मन के सूनेपन पर तरस खाकर तो ऐसा नहीं कह दिया, खुद को गलत साबित करने व खुद की नज़रों में अपनी थोड़ी बहुत बची-खुची इज्जत बचाने के लिए मैंने 2 दिनों तक खुद को जबरन पार्क से दूर रखा, पर कब तक?

तीसरी सुबह मैं पार्क के उसी बेंच पर बैठ उसका इंतजार करने लगा, रह रहकर अनमने से हीं सही पर देह-हाथ हवा में भांज देता ताकि किसी को यह न लगे कि मुझे किसी का इंतजार है और लोगों का यह भ्रम बरकरार रहे कि बुढ़ऊ, तंदरुस्ती के फायदे को जानते हुए कसरत कर रहे हैं, सो दौड़ती बच्चियों के बीच उसे ढूंढ़ता वर्जिश करने का उपक्रम करता रहा।

काफी समय बीत गया, धीरे-धीरे करके सभी वापस जाने लगें पर वो नहीं आई, कहने को तो तीन घंटे बाद मैं भी लौट आया पर मेरा मन वहीं फंसा था,
उसकी कमानीदार भौंओं के बीच।

चौथा दिन बीता फिर पाँचवा देखते-देखते पूरा हफ्ता बीत गया, वो नहीं दिखी। तंग आकर अब मैं भी उसे बिनमौसम बरसात मानकर भूल जाना चाहता था, पार्क में बैठे-बैठे अभी खुद को समझा हीं रहा था कि बेमौसम बारिश के भरोसे खेतों में बिचड़ा नहीं बोतें कि यकायक वो दिखी, गुलमोहर सी छटा बिखेरती वो दौड़ी चली आ रही थी।

“अरे, कैसे हैं आप? उस दिन के बाद सीधा आज दिख रहे हैं!”
“मैं तो आता हीं था, तुम हीं नहीं आ रही थीं, कितना ढूंढा मैंने, कहाँ थी तुम”
मैं अभी खुद में खोया हीं हुआ था कि उसने “अरे जनाब कहाँ खो गएं” बोलकर मेरी तंद्रा तोड़ दी।

मैं चोर नज़रों से उसे देखने लगा, वास्तव में मैं उसके चेहरे को पढ़कर यह आश्वस्त होना चाहता था कि उसने मेरे मन की बात नहीं सुनी होगी।

“नहीं तो …कहीं नहीं, बस थोड़ा घुटने में दर्द था तो घर पर हीं था, आप तो…. आप तो आती हीं होंगी यहाँ, रोज-रोज?”
मैंने अपनी वाक्पटुता का कुछ ऐसा व्यूह रचा की वो बिना यह जाने कि मुझे उसका इंतजार था, अपनी अनुपस्थिति का कारण मुझे बता दे।

“वो… वो… मैं घर गई थी, कुछ काम था ना, इसलिए”
उसकी घबराहट, मेरी अनुभवी नज़रों से बच नही पाई, और मैंने निश्चित कर लिया अब तो मैं जानकर रहूँगा कि आखिर बात क्या है, मैंने पासा फेंका “घर पर सब ठीक तो है ना, मम्मी-पापा, भाई-बहन सब कुशल?”

मैंने देखा, उसका ऊंचा-दमकता चेहरा पसीने की नन्ही बूंदों से भर चुका था और अब एक पतली सी नदी का रूप ले उसके गर्दन से होते हुए उसके उभारों के बीच विलीन हुआ जा रहा था, उसकी साँसे लोहार की धौंकनी सी चल रही थी, कुल मिलाकर उस वक़्त उसी स्थिति मुझे ठीक नहीं लगी, पर अगले हीं पल वह बिना कुछ बोले, एकदम से चली गई। मैं अब भी ढूंढ रहा था “मैंने ऐसा क्या पूछ दिया कि….” इसी बीच नज़र उठाकर देखा तो वो दूर जा चुकी थी।

मुझे शुरू से हीं रात का खाना जल्दी खा लेने की आदत है। घर पर अकेला हूँ, पत्नी शादी के दूसरे साल हीं बच्चे को जन्म देते समय, गुज़र गई। न वो बची न हीं मेरा वारिस। इस दर्द ने मुझे इतना तोड़ दिया कि मैं फिर कभी जुड़ हीं नहीं पाया, न किसी और से … ना हीं खुद से।
पर उस दिन , न जाने क्यों एक अजीब बंधन महसूस हो रहा है, उस अनजान लड़की के साथ।
खैर, तो घर पर वैसा कोई है हीं नहीं जो मेरे दाना-पानी का इंतजाम कर सके तो शाम के वक़्त यही कोई 7-7:30 बजे के आसपास पास हीं के एक ढाबे जहाँ अपने खाने-पीने की व्यवस्था कर रखी है की ओर जा रहा था कि अचानक से वो मुझे पास वाले सुनार की दुकान जो कि मेरे पुराने मित्र बनवारी साह जी की है में घुसती हुई दिखी।
उसके हाथों में एक छोटा लाल डब्बा था, मैं किनारे छिपकर उसके दुकान से बाहर निकलने की प्रतीक्षा करने लगा। उसके जाते हीं मैं दुकान में घुस गया।

“कैसे हो बनवारी सेठ?” मैंने अपनी चिरपरिचित अंदाज में गद्दी पर बैठे अपने दोस्त को अपने स्वागत को उद्धत करने को बोला।
“अरे आओ गिरधारी, आओ! कैसे हो?”

“मैं तो ठीक हूँ, तुम अपनी कहो, सुना है सुनारी के धंधे में खूब पैसे छाप रहे हो, क्यों?”

“अरे कहाँ, इतनी महंगाई है, ऐसे में लोगों को दो वक्त की रोटी नहीं मिल रही, सोना कौन खरीदेगा भला”

“क्यों, अभी कोई मोहतरमा आई तो थी, कुछ तो खरीदा हीं होगा?” मैंने उस लड़की के इस दुकान में आने की वजह पता करने के लिए यह बात घुमाकर बस इसलिए भी पूछी थी ताकि किसी को कोई शक न हो।

“कौन? वो लड़की, जो अभी-अभी यहाँ से गई है वो?” उसका नाम कंचन है। वह कुछ खरीदने नहीं आती, जब भी आती है.. बेचारी कुछ न कुछ बेचने हीं आती है”

“क्यों? ऐसी क्या बात है?” मैंने चिहुँक कर पूछा

“तुम्हें वो रंगीला श्यामलाल याद है? अरे वहीं जो लॉज चलाया करता था, तुम भी तो जाते थे वहाँ ताश की गड्डियां फेंटने। लॉज में काम करनेवाली विधवा के साथ उसके संबंध थें। उसी विधवा और उस श्यामलाल की औलाद है ये।

सब ठीक चल रहा था, श्यामलाल एक निश्चित रकम इसकी माँ को हर महीने भिजवा दिया करते थें, साथ हीं उन्होंने रहने के वास्ते यहीं मीरा रोड पर भी एक छोटा मकान दे रखा था।
पर अब जबकि श्यामलाल की मौत पिछले साल हार्ट-अटैक से हो चुकी है, तो इन्हें पैसे भी मिलने बंद हो गएं और अब श्यामलाल का लड़का भी फ्लैट वापस लेने के लिए केस कर रखा है। आमदनी कुछ है नहीं खर्चे हज़ार हो रहे है, तो इसबार अपनी माँ का मंगलसूत्र बेचने आई थी”

चाय आकर कब की ठंडी हो चुकी थी,
भारी मन से बिना इजाजत माँगे मैं वहाँ से चुपचाप निकल आया। भावनाओं की आद्रता से पूरी दुकान कुछ इस तरह भर चुकी थी कि न तो किसी ने मुझे रोका न कोई कुछ बोला, हर तरफ एक सन्नाटा पसरा था जैसे कोई मर गया हो।

एक सुबह थी जो आने में का नाम नहीं ले रही थी, एक मैं था, जिसे सूरज को ज़ल्द खींच लाने की जल्दी थी। मन में कई सवाल थें… अब सुबह होने को हैं, सहसा अलार्म बजा। 4 बज चुके थें। मैं झट से उठा हो 5 बजते-बजते खुद को उस गुलमोहर वाले पार्क में बने हमारे मीटिंग बेंच पर जाकर टिका दिया।
वह 5:25 में फील्ड का एक चक्कर लगाकर मुझे मिलती है। आज थोड़ी जल्दी आ गई।

“हाई, कैसी हो?” आज मैंने पहली बार उसे रोका

“हाई, अच्छी हूँ, आप पिछली रात सोएं नहीं क्या?”

मुझे उस छोटी लड़की से इस पारखी सवाल की कतई उम्मीद नहीं थी, सचमुच उस वक़्त मैं बिलकुल हड़बड़ा गया था। खुद को संभालता हुआ बस इतना हीं बोल पाया कि ठीक हूँ।

आप बनवारी अंकल को जानते हैं ना?
एक तरफ उसके इस सवाल से मैं चौंक गया था, दूसरी तरफ मैं उसकी मानवीय प्रवृति को समझने का कायल हुआ जा रहा था कि यह लड़की जब इतना कुछ जानती है, तो सीधा अपने पिता यानी कि श्यामलाल के बारे में क्यों नहीं पूछ लेती। मैंने सधे हुए लहजे में गंभीरता के साथ जवाब दिया
“हाँ, जानता हूँ! पर तुम यह कैसे जानती हो?”

“मैंने आपको, कल उनकी दुकान में देखा था मेरा मोबाइल वहीं कुर्सी पर छूट गया था, लेने गई तो…..”

“….तो मैं समझ गई, आप भी मेरे पापा को जानते हैं,
खुशी होती है जब कोई मुझे सबकी तरह किसी की वासना नहीं, स्व० श्यामलाल की बेटी बुलाता है,
आज लड़ रही हूँ क्योंकि मेरी माँ नहीं लड़ पाई”

“पर अब शायद नहीं लड़ पाऊँगी, माँ बीमार है,
शायद कभी भी मर जाये” जीने का एक हीं आसरा है वो भी… पता नहीं कब..” इतना कहकर वो फफक-फफक कर रोने लगी। वकील की फी देने और माँ की दवाइयों का खर्च देने के लिए, क्या कुछ नहीं सहा मैंने, पापा की अंतिम निशानी माँ का मंगलसूत्र भी…. नहीं अब मुझसे सहन नहीं होता…”
– वह काँप रही थी, मैं ठगा सा निःशब्द पड़ा था।

“माँ के ईलाज के लिए कई बार ड्रग्स की सप्लाई भी की है, उसमें अच्छे पैसे मिल जाते थे मुझे, मैं यहाँ जॉगिंग करने नहीं आती हूँ, कस्टमर्स के लिए ड्रग्स लेने आती हूँ। पिछली बार जब मैं आपसे आखिरी बार आपसे मिलने आई थी, उस दिन मुझे एक बड़ी असाइनमेंट हीरानंदानी स्टेट्स की किसी फ्लैट में पहुँचानी थी। मैं जैसे हीं वहाँ उस फ्लैट के भीतर घुसी, उन्होंने अंदर से फ्लैट का दरवाजा बंद कर दिया। वो पूरे चार लोग थें…मुझे तीन बाहर निकलने भी नहीं दिया हा हा हा हा” – उसकी आवाज क्रमशः सख्त हुई जा रही थी, आह! कितना कुछ सहा होगा इस फूल सी बच्ची ने।

“मैं खुश हूँ, मुझे पूरे पचास हजार मिले…. मैं वैश्या बन गई, …..बाजारू ….बाजारू हो गई मैं” -वो पब्लिक पार्क में चीख रही थी… रो रही थी। और मैं निस्तेज अलस्थ पड़ा था।

“मैं आपको यह सब इसलिए नहीं सुना रही कि आप मुझपर कोई दया दिखाये… सच पूछिए तो मैं ठीक से आपको जानती भी नहीं। बस ये जानती हूँ कि आप मेरे पापा को जानते थें, इसलिए शायद मुझे..मेरी परिस्थितियों को ठीक से समझ और जज कर पाएंगे।

“मैं …मैं क्यों जज करूँगा”- मैं हड़बड़ाया पर वो संभली रही, और सीधा सटीक शब्दों में जैसे कृष्ण गीता के उपदेश दे रहें हों, उस भाव भंगिमा से बोलती रही।

जज हीं नहीं, आपको कल को गवाही भी देनी पड़ सकती है।

“गवाही? कैसी गवाही, किसकी और क्यों, तुम कुछ बताती क्यों नहीं? क्या करने वाली हो तुम” – मेरी शब्दों में अधीरता थी, और वाणी में कंपन

“क्योंकि आप हीं हैं, जो कल को मेरी कहानी लिखेंगे, आप शायद भीतर से कमजोर हैं इसलिए अपनी कहानी के अंत में मेरे बारे में खुद फैसला न लेकर कि मैं उस कहानी में एक नायिका के रूप में स्थान पाती हूँ या कि एक खलनायिका के रूप में, यह पढ़ने वाले के विवेक के ऊपर छोड़ दें, ये आपका फैसला रहेगा! आपकी कहानी है, इतना हक़ बनता है आपका”
वह मुस्कुराती हुई वहाँ से चली गई, मैं जो कि अबतक उसकी सारी बात फटी आँखों खुले कानों से देख और सुन रहा था, उस वक्त अपने पूरे बदन में ठंढी लहर को दौड़ते महसूस कर रहा था” मैं उस वक़्त एक अंजाने डर से कांप रहा था। जाते वक्त उस लड़की की मुस्कान में मुझे कुटिलता दिख गई थी।

लड़की ज़हीन है, उसमें कोई शक़ नहीं। और जब इतना तेज दिमाग शातिर बन जाये तब वो कुछ भी डिस्ट्रुक्टिव कर सकता है, कहीं खुद की जान न ले ले
“नहीं-नहीं, ऐसा नहीं हो सकता, कम से कम जब तक उसकी माँ ज़िंदा है, तब तक तो बिलकुल नहीं”

सुबह के आठ बज चुके हैं, वो अब तक नहीं दिखी।
जाने क्या मन में आया, सोंचा ज़रा उसके घर की तरफ हीं हो लूँ। पूछते-पूछते उसके घर तक भी जा पहुंचा, दरवाजा खुला था, भीतर कुछेक टूटी प्लास्टिक की कुर्सियाँ और एक चारपाई थी, मैं आश्चर्यचकित था, क्योंकि घर का यह स्वरूप मैं बहुत पीछे, अपने गाँव में हीं छोड़ गया था, और कम से कम मुंबई के इस पॉश इलाके में ऐसे फटेहाल घर की वकालत तो कोई विरला दिमाग हीं कर सकता है।

खैर, मैं उस घर में घुसा। घर में घुसते हीं छः फिट चौड़ा एक पैसेज है जो भीतर के कमरे आदि की तरफ खुलता है। मैंने अंदर झाँककर देखा। एक चौकी पर एक बुढ़िया जो कि ठीक से दिखाई भी न दे, ऐसी दुबली हो, बिस्तर पर खुले मुँह सीधी पड़ी थी, मुँह पर मक्खियों की पूरी फौज भिनभिना रही थी। पर उस शरीर द्वारा इसका कोई विरोध अथवा असहजता मासूस हो रही हो, ऐसा महसूस नहीं हो रहा था, जैसे कोई लाश हो।

…लाश… मैं धड़ाम से वहीं बैठ गया, मेरे सिक्स सेंस ने मुझे बता दिया कि बुढ़िया मर चुकी है। मेरे दिमाग में एक बिजली कौंधी और उस लड़की का मुस्कुराता हुआ, सख्त चेहरा आँखों के सामने घूमने लगा। मेरी नज़रे उस लड़की को तलाशने लगीं।

बाथरूम से पानी की आवाज आ रही थी, नल खुला था।

मैं कांपते टाँगों से बाथरूम के अंदर झांककर देखा तो देखा वो लड़की अर्धनग्न बाथटब के पास पड़ी थी, अपनी कलाई की नस उसने खुद से काट ली थीं सर्जिकल ब्लेड उसके सीधे हाथ की उंगलियों के बीच अब भी फंसा था। ये आत्महत्या थी।

पर उसकी माँ, वो कैसे मरी? बीमारी से…… या फिर इस लड़की ने पहले अपनी माँ को…

मैं उसकी माँ की लाश के नजदीक गया, ध्यान से देखा तो कांप गया, ये ….ये वही है। ….ये वही है जिसके साथ, जिसके साथ उस रात श्यामलाल ने नहीं। मैंने… मैंने मुँह काला था।

इसका मतलब वो ….वो मेरी बेटी थी… वो मेरी बेटी थी, कहकर वहीं जमीन पर उसकी माँ के पास, जिसको माँ बनाने के बावजूद उसका नाम न जान पाया, उसको पकड़ कर फूट-फूटकर रोने लगा।
वहीं सिरहाने एक कागज का टुकड़ा पड़ा था। जिसपर लिखा था

【 मैं तुमसे हर बार यही कहती थी
और आज भी कहती हूँ
मेरे सुख को बांट तो सकते हो
लेकिन मेरे दुःख को कभी नहीं…
मेरे दुःख मेरे हीं अपने हैं
इसपर किसी का हक़ नहीं….
खत के नीचे अर्श के साथ एक नाम लगाकर हस्ताक्षर किया गया था
-अकीरा अर्श 】

अर्श मेरा दस्तखत है।
इस चिट्ठी को मैंने कुछ इस तरह मोड़करअपनी आस्तीन में छिपा लिया, जैसी कि वो छूकर भी महसूस न हो।

मैं वहाँ से कब निकल आया, खुद मुझे भी नहीं पता।
पर आज भी, जब कभी इस पार्क में आता हूँ वो गुलमोहर सा खिला-खिला चेहरा याद आ जाता है। यद्यपि मैं उसे कभी नहीं भूलता पर एक बाप वह पल जिस पल उसने अपने बच्चे को पहली बार अपनी बाहों में महसूस किया होगा, बार-बार महसूस करना चाहता है। मैं भी करना चाहता हूँ, इसलिए तो यहाँ आता हूँ। मैं उससे पहली बार यहीं तो मिला था, यहीं… इसी पार्क में…

उसके वो शब्द अब भी सुनाई देते हैं जब उसने मुझसे कहा था

“क्योंकि आप हीं हैं, जो कल को मेरी कहानी लिखेंगे, आप शायद भीतर से कमजोर हैं इसलिए अपनी कहानी के अंत में मेरे बारे में खुद फैसला न लेकर कि मैं उस कहानी में एक नायिका के रूप में स्थान पाती हूँ या कि एक खलनायिका के रूप में, यह पढ़ने वाले के विवेक के ऊपर छोड़ दें, ये आपका फैसला रहेगा! आपकी कहानी है, इतना हक़ बनता है आपका”

क्या श्यामलाल सब जानता था, तो कहीं शायद उसी वजह से तो नहीं उसे हार्ट-अटैक आया और वो मर गया?”

तो .. तो, क्या वह जानती थी कि… हाँ-हाँ वो सुरु से जानती थी कि वह श्यामलाल की नहीं, मेरी बेटी है।
उस रात श्यामलाल नहीं, मैं था?”
“पहले से नाजायज का तमगा ढो रही मेरी बच्ची ने कैसे सुना होगा कि वह जिसे अपने नाजायज बाप मानती है, वह भी उसका बाप नहीं है, वो तो कोई और है जिसने उसकी विधवा माँ की जिंदगी उजाड़ दी। श्यामलाल की इज़्ज़त उसके मन में कितनी बढ़ गई होगी, और मेरी…. मेरी कितनी कम हो गई होगी।
क्या मेरी बच्ची ने मरते वक्त मुझे माफ़ कर दिया होगा।”
“क्या उसने मरते वक्त मुझे पापा कहकर पुकारा होगा? तुमने मुझसे कहा क्यों नहीं मेरी बच्ची??

वह मेरे दामन की कली थी, लेकिन मेरे पापों ने मेरी उस कली को कुम्हला कर रख दिया। उसने पहले अपनी माँ को गला घोंट कर मारा फिर खुद की जान ले ली। मेरी वजह से श्यामलाल मरा, मेरी बेटी ड्रग डीलर बनी, उसके साथ सामुहिक बलात्कार हुआ, वो खुद को अपनी माँ की हीं तरह बाजारू मानने लगी। फिर उसने हत्या करके आत्महत्या तक कर ली।

यह सब मैंने किया … हाँ सब मैंने किया है। मैंने अपनी बेटी का बलात्कार कर दिया।
हे भगवान! मुझसे ये क्या अनर्थ हो गया.. मुझसे ये क्या अनर्थ हो गया।

Language: Hindi
2 Comments · 628 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
एक तरफ
एक तरफ
*Author प्रणय प्रभात*
तपिश धूप की तो महज पल भर की मुश्किल है साहब
तपिश धूप की तो महज पल भर की मुश्किल है साहब
Yogini kajol Pathak
वो लोग....
वो लोग....
Sapna K S
दस्तरखान बिछा दो यादों का जानां
दस्तरखान बिछा दो यादों का जानां
Shweta Soni
जनतंत्र
जनतंत्र
अखिलेश 'अखिल'
भगतसिंह
भगतसिंह
Shekhar Chandra Mitra
अंदाज़े बयाँ
अंदाज़े बयाँ
अनिल कुमार गुप्ता 'अंजुम'
परिपक्वता
परिपक्वता
लक्ष्मी वर्मा प्रतीक्षा
वक्त  क्या  बिगड़ा तो लोग बुराई में जा लगे।
वक्त क्या बिगड़ा तो लोग बुराई में जा लगे।
सत्येन्द्र पटेल ‘प्रखर’
"ऐ जिन्दगी"
Dr. Kishan tandon kranti
💐प्रेम कौतुक-307💐
💐प्रेम कौतुक-307💐
शिवाभिषेक: 'आनन्द'(अभिषेक पाराशर)
खुद को खोने लगा जब कोई मुझ सा होने लगा।
खुद को खोने लगा जब कोई मुझ सा होने लगा।
शिव प्रताप लोधी
होली का त्यौहार
होली का त्यौहार
Kavita Chouhan
ख़ता हुई थी
ख़ता हुई थी
हिमांशु Kulshrestha
*अज्ञानी की कलम*
*अज्ञानी की कलम*
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी
*मेरे पापा*
*मेरे पापा*
Shashi kala vyas
मोहब्बत मुकम्मल हो ये ज़रूरी तो नहीं...!!!!
मोहब्बत मुकम्मल हो ये ज़रूरी तो नहीं...!!!!
Jyoti Khari
अपनी क़िस्मत को हम
अपनी क़िस्मत को हम
Dr fauzia Naseem shad
*नींद आँखों में  ख़ास आती नहीं*
*नींद आँखों में ख़ास आती नहीं*
सुखविंद्र सिंह मनसीरत
सोशल मीडिया पर दूसरे के लिए लड़ने वाले एक बार ज़रूर पढ़े…
सोशल मीडिया पर दूसरे के लिए लड़ने वाले एक बार ज़रूर पढ़े…
Anand Kumar
'शत्रुता' स्वतः खत्म होने की फितरत रखती है अगर उसे पाला ना ज
'शत्रुता' स्वतः खत्म होने की फितरत रखती है अगर उसे पाला ना ज
satish rathore
मजदूर दिवस पर
मजदूर दिवस पर
नील पदम् Deepak Kumar Srivastava (दीपक )(Neel Padam)
नया ट्रैफिक-प्लान (बाल कविता)
नया ट्रैफिक-प्लान (बाल कविता)
Ravi Prakash
शमशान और मैं l
शमशान और मैं l
सेजल गोस्वामी
मैं जान लेना चाहता हूँ
मैं जान लेना चाहता हूँ
Ajeet Malviya Lalit
नव वर्ष की बधाई -2024
नव वर्ष की बधाई -2024
Raju Gajbhiye
ये
ये "परवाह" शब्द वो संजीवनी बूटी है
शेखर सिंह
" सब भाषा को प्यार करो "
DrLakshman Jha Parimal
डॉ अरूण कुमार शास्त्री
डॉ अरूण कुमार शास्त्री
DR ARUN KUMAR SHASTRI
जोकर
जोकर
Neelam Sharma
Loading...