‘गुरु – शिष्य का अटूट बंधन’
आज मैं आपको गुरु – शिष्य की महत्ता के बारे में बतलाना चाहती हूँ।मैं काफ़ी दिनों से इस विषय पर लिखने की सोच रही थी। आपको सच बताऊँ चाहे मैं जो और जब भी लिख लूँ, किंतु ये विषय मेरे हृदय के सबसे करीब होगा,क्योंकि मेरे जीवन में गुरुयों का स्नेह,मान,सम्मान ही इस तरह रहा कि मैं अपने आपको धन्य मानती हूँ।मेरा जीवन तभी सफल हो गया था,जब मुझे इतने अच्छे – अच्छे गुरुयों का सानिध्य प्राप्त हुआ।बचपन से लेकर अब तक मैं जहाँ पढ़ी,जब पढ़ी,उन सभी शिक्षकों का मेरे प्रति जो स्नेह का भाव था और है,कि उतना स्नेह तो मेरे हृदय में कभी – कभी समा ही नहीं पाता।जब शिक्षकों का इतना प्यार और दुलार मिलता है ना,तो कभी – कभी हम अपने आप को सातवें आसमान पर समझने लग जाते हैं।लगता है,मुझसे अधिक धनवान और कौन हो सकता है।
मैं बात करती हूँ, अपने बचपन से।मैं नहीं चाहती कि उनमें से किन्हीं के भी आशीर्वाद से वंचित रह जाऊँ। जब मैं बचपन में अपने गाँव में ही रहकर अपनी प्रारंभिक शिक्षा ग्रहण कर रही थी,उस वक़्त तो मैं काफ़ी छोटी भी थी।मुझे किसी बात का न तो उतना कोई भान या अनुभव ही हो पाता था,फिर भी मुझे कुछ – कुछ बातें याद आती हैं,या मेरी माँ मुझे बताया करती हैं कि किस तरह शिक्षकों के प्रति मेरा व्यवहार था,और वे मुझसे किस तरह प्रभावित रहते थे।
मुझे ऐसा लगता है कि शायद ये मेरा व्यक्तित्व, मेरे व्यवहार,मेरी सोच,मेरे संस्कार,मेरी सभ्यता,मेरा विश्वास,मेरा उनके प्रति आदर व सम्मान का भाव,यही सारी बातें रही होंगी या हैं जिनसे वे प्रभावित होने से बच नहीं पाते थे। और ये बिल्कुल सत्य भी है।मैं बचपन से ही ऐसी हूँ।मुझे अपने गुरुयों से एक ख़ास लगाव और उनके प्रति एक सम्मान का भाव मेरे हृदय में हमेशा रहता है। दूसरी बात ये भी है कि मैं अपनी पढ़ाई में बचपन से ही न बहुत ज़्यादा थी,और नाहिं कम।चीजों और बातों को संभालना, किस समय क्या बोलना,कैसे रहना,क्या कहना और क्या ना,इन सारी बातों का ज्ञान शायद मेरे संस्कार में ही घुले हुए हैं।मतलब कुल मिलाकर मैं बात करूँ तो एक सही सामाजिक ज्ञान का पता मुझे भली – भाँति था और है भी।हो सकता है ये भी बातें रही हों,जिनसे मैं उन्हें प्रभावित करने में कामयाब हो पाती थी।
देखिए,एक बात मैं यहाँ साफ़ कर दूँ कि शिक्षक केवल अपने विद्यार्थियों की भलाई और उनके उज्जवल भविष्य की ही कामना करते हैं,वे कभी भी उनका बुरा सोच ही नहीं सकते ।वे तो केवल अपने विद्यार्थियों के द्वारा मिले सम्मान से ही संतुष्ट रहते हैं। गुरु केवल आदर के भूखे होते हैं,और शिष्य उनके स्नेह के। ऐसा नहीं है कि वे केवल उन्हीं विद्यार्थियों से प्रसन्न रहते हैं जो पढ़ाई में बहुत अच्छे हों,जो हमेशा अव्वल आते हों।ये सारी बातें तो सही हैं ही,किंतु कुछ ऐसे भी विद्यार्थी होते हैं जो अपने आचरण,स्वभाव,संस्कार से उनका ध्यान अपनी ओर आकर्षित कर लेते हैं, एवं उनके प्रिय बन जाते हैं।देखिए विद्यार्थी भी तीन तरह के होते हैं,पहले वे जो पढ़ने में अव्वल होकर,शिक्षक के ज़ुबान पर अपना नाम दर्ज करा लेते हैं।दूसरे वे जो अपने व्यवहार से शिक्षकों के प्रिय बन जाते हैं।तीसरे वे जो अपनी शैतानी और नटखटपन के कारण ,उनके दिमाग में घूम रहे होते हैं।मुझे लगता है कि मैं अपने आप को दूसरे वर्ग में रखती हूँ, और रखना पसंद भी करती हूँ।गुरु – शिष्य का सम्बंध सबसे श्रेष्ठ होता है।इस सम्बंध का स्थान माँ, बाप और ईश्वर के सम्बंध से भी कहीं ज़्यादा ऊपर,पवित्र और गरिमामयी होती है।तभी तो संत कबीरदास जी की ये अमृतवाणी हर काल,हर समय में इतने प्रासंगिक हैं : –
“गुरु गोविंद दोनों खड़े, कांके लागूं पायँ।
बलिहारी गुरु आपने,गोविंद दियो बताय।।” स्वयं ईश्वर ने भी गुरु को अपने आप से ऊपर बताया है,क्योंकि वो गुरु ही हैं जिनके माध्यम से हम उस परम आत्मा से भी साक्षात्कार पा सकते हैं।
मेरे जीवन में जो सबसे प्रथम गुरु का पदार्पण हुआ जिनसे मैं काफ़ी प्रभावित हूँ, वे हैं मेरे गाँव के विद्यालय के प्रधानाचार्य ‘बीरू’ सर। उनका एक – आध बार मेरे घर आना – जाना भी हुआ था। उनकी शालीनता,उनके उचित बोल एवं उनके आदर्श व्यक्तित्व ने मुझे बहुत प्रभावित किया।जब मैंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा समाप्त की,और बोकारो आ गयी,तब मुझे यहाँ ऐसे – ऐसे महानुभावों(गुरुयों) के दर्शन हुए कि मैं जीवन भर उन्हें नहीं भूल सकती।सबसे पहले हमारे घर आकर जिस शिक्षक ने पढ़ाया,वह थे कुणाल सर। वैसे उन्हें टी भैया कहने को ही दिल करता,परंतु कभी कह नहीं पायी,सर नाम से ही उन्हें संबोधित करती थी,अभी भी करती हूँ।उस वक़्त काफ़ी कम उम्र थी उनकी,लगभग 20 – 25।फिर भी गुरु तो गुरु होते हैं चाहे वह कितने बड़े या छोटे ही क्यों ना हो।भले ही उनका साथ अल्पकालीन ही रहा,किंतु यह जरूर बता सकती हूँ कि जितना कम उनका साथ रहा ना,उतना ही ज़्यादा प्रभाव इनका हमारे ऊपर हो गया।हम तीनों भाई – बहनें उनसे पढ़ा करते थे।मुझे याद है जब वे पहली बार हमारे घर किन्ही के कहने पर आए थे,तो उन्होंने सबसे पहले हमसे यही कहा कि आप तीनों एक पेज कुछ लिखकर रखेंगें, मैं अगले दिन से जब पढ़ाने आऊँगा तब देखूँगा।मैं तभी समझ गयी कि सर ने किस प्रकार से हमारा स्तर ऊँचा उठाना प्रारंभ कर दिया।उन्होंने नाहिं केवल हमें पढ़ाया बल्कि समग्र रूप से हमारा विकास किया।हम यहाँ नए आए थे,हमें यहाँ की पढ़ाई,लिखाई आदि बातों की ज़्यादा जानकारी भी नहीं थी,और हमारी पढ़ाई का स्तर भी काफी कम था।संभव है मैं सही हूँ, उन्होंने हमें केवल लगभग 2 वर्ष ही पढ़ाए, उससे कम ही होंगे ज्यादा नहीं।यह बात वर्ष 2008 – 2010की रही होगी।मतलब क्या कहूँ उनके पढ़ने का अंदाज़, तरीका,समय सबकुछ लाज़बाब था।वे समय के बहुत ही पाबंद थे,जो समय तय है,उसी पर आना और जाना है।हम सभी भी उनके आने से पहले इस तरह पूरे व्यवस्थित होकर बैठ जाते थे,मानो या तो हमसे अच्छा कोई नहीं,या सर से डरवाने कोई नहीं।ख़ैर, ये तो मैं मज़ाक कर रही हूँ, उनका आदर ही हमारे मन में इस क़दर समाया था कि हम किसी भी प्रकार की कोई ग़लती नहीं करना चाहते थे।सर ने एक बार हमें एक वाक्या भी बताया था कि वे जिस बच्चे को पढ़ाते थे,जब उसके घर वालों ने कहा कि सर आ रहे हैं,तो वो उस वक़्त आम के पेड़ पर चढ़ा हुआ था, वो वहीं से कूद गया।इतना हँसे हम ये बात सुनकर कि पूछिए मत।सर उस वक़्त उम्र के जिस पड़ाव पर थे,उस वक़्त उनका उतना अनुशासित ख़ुद रहना और अपने विद्यार्थियों को भी रखना वाक़ई जरूरी और आवश्यक भी था।उस वक़्त वे ख़ुद भी पढ़ाई कर रहे थे,और हमें पढ़ा भी रहे थे।बहुत ही ज़्यादा अनुशासित थे।इतने अच्छे ढंग से उन्होंने हमें पढ़ाया कि हमारी लिखावट से लेकर,हमारे बोलने,पढ़ने,समझने सबके तरीकों को सुधार दिया।आलम तो यह था कि सभी उनसे पढ़ने के लिए बेचैन रहते थे।कितनी बार तो हमने कई अभिभावकों से कहा कि नहीं सर के पास अब इससे ज़्यादा समय नहीं।कुछ ख़ुद के लिए भी समय निकालेंगे या सारा दिन पढ़ाते ही रह जाएँगे।उन्होंने हमारी पढ़ाई के स्तर को हमारे स्तर को काफ़ी ऊँचा उठा दिया था। सबके नसीब में ऐसे शिक्षक नहीं होते।मैं तो अपने आप बहुत ही ज़्यादा भाग्यवान और गौरवान्वित महसूस करती हूँ कि मुझे उनका सानिध्य प्राप्त हुआ। मुझे याद है,एक बार उन्होंने तेजपत्ता का एक बड़ी सी पत्ती लायी थी,और हमें दिखाया।हमने उन्हें उसपर हस्ताक्षर करने को कहा,ताकि हम इसे यादगार के तौर पर रख सकें।मैंने आज तक उसे बहुत ही संभालकर रखा हुआ है।जब भी उसे देखती हूँ,सारी बातें और वक़्त घूमने लग जाते हैं।आख़िर कर वह दिन आ ही गया,जो मैं कभी नहीं चाहती थी,पर इतना स्वार्थी भी कैसे हो सकती थी।उन्हें तो जाना ही था,अपने सुनहरे भविष्य को तलाशने।वे उस दिन आए, मेरी नज़र उनके जूतों की ओर गयी।रोज़ाना वे कभी जूते पहनकर नहीं आते थे,सामान्य सी चप्पल या फिर लड़के वाली सैंडल।उसे देखकर तो मानो मेरा दिल बैठा जा रहा था।मैंने आरंभ में ही जो नज़रें उनके पैरों की ओर झुकाई थी,वे उनके जाने के कई क्षणों तक नहीं उठ सकीं।उन्होंने प्रतिदिन की तरह हमें एक घन्टे पढ़ाए।पढ़ाई के दौरान वे जो कुछ भी पढ़ा और बता रहे थे,वे तो मुझे याद नहीं,पर हाँ इतना जरूर याद है कि अपनी नज़रों को मैंने एक बार भी उठाकर उनकी ओर देखने नहीं दिया।शायद इस बात को वे बख़ूबी समझ पा रहे थे कि मुझे कितनी पीड़ा और तकलीफ हो रही है,उनके जाने से।सच कहती हूँ,इसे शब्दों में बयां करना मेरे लिए उतना ही मुश्किल है जितना मुश्किल मेरे लिए वो एक घन्टे काटने थे।घन्टे पूरे हुए,वे जाने के लिए उठे,हमलोगों की ओर देखा, मेरी नजरें यूँही पहले की भाँति।वे चले गए।उसके बाद जो मैंने अपने दोनों हथेलियों से अपने चेहरे को ढँका,और सिसकियाँ लेने लगी कि वह स्थिति कितने लंबे समय तक बनी रह गयी,वो मुझे नहीं पता।मेरी बहन ने बताया कि तुम आधे घन्टे से ऐसे ही बैठी हो,क्या हुआ,बात क्या है,सब ठीक है ना,देखो ना मम्मी इसे क्या हुआ,ये रो रही है।अब मैं उसे क्या समझाती की मैं क्यों रो रही हूँ, इतनी आत्मियता, मोह और लगाव हो गया था,उनसे की वही अश्रु बनकर बह रहे थे। आपको यकीन नहीं होगा,मैं कितने दिन लगातार रोयी थी।बल्कि आज तक में ऐसा कोई भी दिन नहीं जब हम उन्हें याद नहीं करते हों। ऐसी गज़ब की आत्मियता थी उनसे।और हमेशा रहेगी भी।उनके जाने के बाद मैंने उन्हें कभी – कभी कँही – कँही देखा भी,पर उनसे बात न हो पायी।एक बार हाल – फिलहाल की बात कर रही हूँ, उनसे संदेश के माध्यम से फसेबूक पर बात हो पायी, बस।ख़ैर कोई बात नहीं,वे तो हर वक़्त हमारे साथ हमारी यादों में रहते ही हैं।