गुम लफ्ज़
गुम हो गए लफ्ज़
शोर-शराबा का धुंध
है शांत ख़्याल यों,
पड़े किसी कोने में
है चहलकदमी कोई,
अल्फ़ाज़ के गली में
सुन्न थे जो कल तक
लफ्ज़ को ओढ़ लिये,
निकल पड़े हैं और यूँ
कौतूहल से जा पहुँचे
मिलने किसी नज्म से
नाज़ुक नज़्म घबराई
ये दर्द,इश्क़, मोहब्बत
कभी अँधेरा,रौशनी
है हमेशा नई राह,फिर
जुगणुओँ के मानिंद
चमकती है रात में,यों
मिलता है सुकूँ इक,
खो जाते है ख़्वाब में।।