गुमराह बचपन
गुमराह हुआ बचपन,
जिम्मेदारियां आ गई।
गरीबी बनी बदनसीबी,
सपने है सब भुला गई।
किस्मत है लिखी इनकी,
किस स्याही की कलम से।
सुनी दास्तान इनसे जब भी,
इनकी आंखें ये छलछला गई ।
दो वक्त की रोटी के लिए ,
दर दर यह भटक रहा है।
बचपन सारा ही इनका,
बदनसीबी में मिट रहा है।
राहें गलत जिन्होंने थामी,
करते चोरी कहीं चाकरी।
सही गलत सब कहां है,
जीवन चुनौती से भरा है।
किसको कहें ये जाकर,
कोई बात नही है सुनता।
मजबूरी में दफन सपने,
जज्बात न कोई समझता।
नींव है बचपन भविष्य की,
उज्जवल जिसे है बनाना।
इन बच्चों की किस्मत में,
जब तब ठोकरें है खाना।
स्वरचित एवं मौलिक
कंचन वर्मा
शाहजहांपुर
उत्तर प्रदेश