गुमनाम मुहब्बत का आशिक
आया सुध-बुध खोकर दिल्ली,
सफर ट्रेन का एक दिवस,
बगल सीट पर बैठी कमसिन,
उम्र थी उसकी बीस बरस,
घुंघराली काली जुल्फें उसकी,
नैन नशीली मतवाली,
ओठ अमावट का टुकड़ा-सा,
गुलबदन गठीली शर्मीली,
टॉप-जींस में मॉडल दिखती,
छरहरा बदन कमसिन काया,
अपना सुध-बुध खो बैठा मैं,
देख प्रभु की ऐसी माया,
मेरा दिल धक् करता था,
नैन से जब मिलते थे नैन,
अपलक उसी को देखूंँ,
इधर-उधर न आए चैन,
नैन-नैन में रात कटी,
पौ फटते मैं उठ बैठा,
मंद-मंद मुस्काई जब वो,
अपना दिल मैं दे बैठा,
मन ही मन मैं लव यू कहता,
उसको कुछ न कह पाया,
गुमनाम मुहब्बत का मैं आशिक,
पहली बार दिल्ली आया।
मौलिक व स्वरचित
©®श्री रमण
बेगूसराय (बिहार)