गुफ्तगू
गुफ्तगू :
एक मुद्दत हुई
एक सदी ही बीत गई
खुद से गुफ्तगू किए हुए
लगा शायद खुद को
पहचान भी पाऊंगी
या फिर….
एक अजनबियत का फासला
दूरी और बढ़ा देगी
एक अजीब का मंजर है
खुद ही खुद को ढूंड रही हूं.
और न रास्ता है
न मंजिल हैं-
पे पन्हा भीड़ है
अनगिनत
अनजाने
अनचीन्हे चेहरे
और
अपना कोई नहीं
खुद की तलाश
शायद मुक्कमल हो जाए
एक छोटी सी आस
बूंद भर हौंसला
दिल को सहलाती है
पर खुद की खुद से बात
नहीं होती
तमाम चेहरों को मिलने पर
सकून कही नही
राहत कहीं नही
अपनेपन का अहसास
अपने होने का अहसास
कहां गुम गया
और खुद से गुफ्तगू की बात
सोच भर ही रही हूं
इसे एकाकीपन तो
शायद नहीं कहते : ..
पर फिर क्या ???
डॉ . करुणा भल्ला